भाग-1

बैंक से निकलते हुए भारती ने घड़ी पर निगाह डाली तो 6 बजे से अधिक का समय हो चुका था. यद्यपि उस के तमाम सहयोगी कर्मचारी 5 बजे से ही घर जाने की तैयारी में जुट जाते हैं, पर भारती को घर जाने की कोई जल्दी नहीं रहती. उस अकेले के लिए तो जैसे बैंक वैसे घर. एक अकेली जीव है तो किस के लिए भाग कर घर जाए. बैंक में तो फिर भी मन काम में लगा रहता है लेकिन तनहा घर में सोने व दीवारों को देखने के अलावा वह और क्या करेगी.

पार्किंग से भारती ने अपनी कार बाहर निकाली और घर की ओर चल दी. वही रास्ते, वही सड़कें, वही पेड़, कहीं कोई बदलाव नहीं, कोई रोमांच नहीं. एक बंधे बंधाए ढर्रे पर जीवन की गाड़ी जैसे रेंग रही है. सुस्त चाल से घर पहुंच कर वह सोफे पर निढाल सी जा पड़ी. अकसर ऐसा ही होता है, खाली घर जैसे उसे खाने को दौड़ता है. एक टीस सी उठती है, काश, कोई तो होता जो घर लौटने पर उस से बतियाता, उस के सुखदुख का भागीदार होता.

यद्यपि भारती अतीत की गलियों में भटकना नहीं चाहती, मन पर कठोरता से अंकुश लगाने की कोशिश करती रहती है लेकिन कभीकभी मन चंचल बच्चे सा मचल उठता है. आज भी भारती ने सोफे पर पड़ेपड़े आंखें बंद कीं तो उस का मन नियंत्रण में नहीं रहा. पलों में ही लंबीलंबी छलांगें लगा कर मन ने उस के अतीत को सामने ला खड़ा किया.

उन दिनों वह बी. काम. अंतिम वर्ष की छात्रा थी. कुदरत ने उसे आकर्षक व्यक्तित्व प्रदान किया था. ऊंची कद- काठी, गोरे रंग पर तीखे नाकनक्श, लंबे घने काले बाल जिन्हें चोटी के रूप में गूंध देती तो वह नागिन का रूप ले लेती.

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