लेखिका- प्रेम कोमल बूंलिया
बालकनी से कमरे में आ कर मैं धम्म से बिस्तर पर बैठ गई और सुबकसुबक कर रोने लगी. मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि बालकनी में खड़ी हो अपने गीले बाल सुखाने में मैं ने कौन सा अपराध कर दिया जिस से दाता हुक्म (ससुरजी) इतना गुस्सा हो उठे. मुझे अपना बचपन याद आने लगा. जब होस्टल से मैं घर आती थी तो हिरण की तरह खेतों में कुलाचें भरती रहती थी. सहेलियों का झुंड हमेशा मुझे घेरे रहता था. गांव की लड़की शहर के होस्टल में रह कर पढ़ाई कर रही है तो शहर की कई बातें होंगी और यही सहेलियों के कौतुहल का कारण था.
मेरे भैयाभाभी भी कितने प्यारे हैं और कितना प्यार करती हैं भाभी मुझे. कभी भाभी ने मां की कमी महसूस नहीं होने दी. यहां आ कर मुझे क्या मिला? न घर, न किसी का स्नेह और न ही आजादी का एक लम्हा. हां, अगर सोनेचांदी के ढेर को स्नेह कहते हैं तो वह यहां बहुत है, लेकिन क्या इन बेजार चीजों से मन का सुख पाया जा सकता है? अगर हां, तो मैं बहुत सुखी हूं. सोने के पिंजरे में पंछी की तरह पंख फड़फड़ा कर अपनी बेबसी पर आंसू बहाने से ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती.
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पति नाम का जीव जो मुझे ब्याह कर लाया, उस के दर्शन आधी रात के बाद होते हैं तो दूसरों को मैं क्या कहूं. पता नहीं किस बुरी घड़ी में महेंद्र की नजर मुझ पर पड़ गई और वह मुझे सोने के पिंजरे में बंद कर लाया.
महेंद्र का रिश्ता जब पापा के पास आया था तो सब यह जान कर हतप्रभ रह गए थे. इतने बड़े जमींदार के घर की बहू बनना बहुत भाग्य की बात है. पता नहीं सहेलियों के साथ खेतों में कुलाचें भरते कब महेंद्र ने मुझे देखा और मैं उन की आंखों में बस गई. तुरतफुरत महेंद्र के घर से रिश्ता आया और पापा ने हां करने में एक पल भी नहीं लगाया.
बड़े धूमधड़ाके से शादी संपन्न हुई और मैं जमींदार घराने की बहू बन गई. जिस धूमधाम से मेरी शादी हुई उसे देख कर मैं अपनी किस्मत पर नाज करती रही. महेंद्र को देख कर तो मेरे अरमानों को पंख लग गए. जितना सुंदर और ऊंचे कद का महेंद्र है उस से तो मेरी सखियां भी ईर्ष्या करने लगीं. ससुराल की देहरी तक पहुंची तो दोनों ओर कतार में खड़े दासदासियों के सिर हमारी अगवानी में झुक गए. उन्हें सिर झुकाए देख कर मुझे एहसास होने लगा मानो मैं कहीं की महारानी हूं.
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सासूमां ने आरती उतार कर मुझे सीने से लगा लिया. मुझे लगा मुझे मेरी मां मिल गई. सुहाग सेज तक पहुंचने से पहले कई रस्में हुईं. मुंह दिखाई में मेरी झोली में सुंदरसुंदर सोने के गहनों का ढेर लग गया.
तमाम तरह की रस्मों के बाद मुझे सुहाग सेज पर बैठा दिया गया. कमरा देख कर मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं. कमरा बहुत बड़ा और बहुत सुंदर सजाया गया था. चारों ओर फूलों की महक मदहोश किए दे रही थी. मेरी जेठानी मुझे कमरे में छोड़ कर चली गईं. एकांत पाते ही मैं ने कमरा बंद किया और घूंघट हटा कर आराम से सहज होने की कोशिश करने लगी. दिन भर के क्रियाकलापों से ढक कर मैं थोड़ा आराम करना चाह रही थी. थकान से कब मुझे नींद ने घेर लिया पता ही नहीं चला.
दरवाजे की कुंडी खड़की तब मेरी नींद खुली. घड़ी रात के साढ़े 3 बजा रही थी. ओह, कितनी देर से मैं सो रही हूं सोचते हुए सिर पर पल्लू ले कर दरवाजा खोला. शराब का भभका मेरे नथुने से टकराया तो मैं ने घबरा कर आगंतुक को देखा. सामने लाल आंखें लिए महेंद्र खड़े थे. मैं हतप्रभ महेंद्र का यह रूप देखती ही रह गई.
अंदर आ कर महेंद्र ने दरवाजा बंद कर लिया और मुझ से बोले, ‘सौरी निशी, शादी की खुशी में दोस्तों ने पिला दी. बुरा मत मानना.’
नशे में होने के बावजूद महेंद्र ने एक अच्छे इनसान का परिचय दिया. मैं ने भी उन्हें कुछ नहीं कहा, लेकिन यह एकदो दिन की बात नहीं थी. हवेली में मुजरे होते और महेंद्र अकसर देर रात ही कमरे में आते. हां, महेंद्र मुझे दिलोजान से प्यार करते हैं लेकिन उस के बदले मुझे कितनी तपस्या करनी पड़ती है यह बात उन्हें समझ में नहीं आती. मैं शिकायत करती तो वह कहते, ‘यह तो हमारी परंपरा है. जमींदारों के यहां मुजरे नहीं हों तो लोग क्या कहेंगे.’
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‘‘अरे, छोटी कहां हो भाई. आओ, सुनारजी आए हैं,’’ यह आवाज सुन कर मैं वर्तमान में लौट आई. मेरी जेठानी मुझे बुला रही थीं. मेरा जाने को मन नहीं था लेकिन मना भी तो नहीं कर सकती थी. बाहर बारहदरी में सुनारजी कांटाबाट लिए बैठे थे. भाभी ने मुझे देखा और पूछा, ‘‘क्या हुआ छोटी, क्या तुम रो रही थीं जो तुम्हारी आंखें लाल हो रही हैं? क्या तुम्हें मायके की याद आ रही है?’’
मैं ने कहा, ‘‘नहीं, भाभी सा, वैसे ही नींद लग गई थी इसीलिए.’’
‘‘छोटी तुझे कुछ गहने बनवाने हों तो बनवा ले. देख मैं तो यह सतलड़ा हार तुड़वा कर दूसरा बनवा रही हूं.’’
‘‘पर भाभी सा, यह तो बहुत सुंदर है और नया भी, आप इसे क्यों तुड़वा रही हैं?’’
‘‘अरे, छोटी, इसे मैं ने अपने भाई की शादी में पहन लिया और तुम्हारी शादी में भी पहना है. बस, अब पुराना हो गया है. मैं तो अब नया ही बनवाऊंगी.’’
मैं क्या कहती चुप रहना ही ठीक समझा. भाभी सा ने कहा, ‘‘तू भी कुछ न कुछ बनवा ही ले. अगर कुछ तुड़वाना नहीं चाहती तो मांजी से सोना ले कर बनवा ले. यहां सोने की कोई कमी नहीं है.’’
निशी सोचने लगी कि वह तो मैं देख ही रही हूं, तब ही तो हमारे लिए यहां सोने के पिंजरे बनवाए गए हैं. इस चारदीवारी में कैद हम गहने तुड़वाएं और गहने बनवाएं बस इन्हीं गहनों से दिल बहलाएं.
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सुनारजी चले गए तो मैं ने पूछा, ‘‘भाभी सा, आप 7 बरस से यहां रह रही हैं. जेठ साहब भी आधी रात से पहले घर में नहीं आते. फिर आप किस तरह अपने को बहला लेती हैं? मेरा तो 4 महीने में ही दम घुटने लगा है.’’
‘‘देख छोटी, इन जमींदारों की यही रीत है. मेरे मायके में भी यही सबकुछ होता है. हम कुछ बोलें भी तो यहां के मर्द यही कहेंगे कि मर्दों की दुनिया में तुम लोग दखल मत दो. तुम्हारा काम है सजधज कर रहना और मन बहलाने के लिए जब चाहो सुनार को बुलवा लो और गहने तुड़वाओ तथा नए बनवाओ.’’
मैं आखें फाड़े भाभी सा को देखती ही रह गई. कितनी सहजता से उन्होंने अपनी स्वतंत्रता को गिरवी रख दिया. कितनी आसानी से इस जिंदगी से समझौता कर लिया, लेकिन मैं क्या करूं? मैं ने तो पढ़लिख कर सारी शिक्षा भाड़ में झोंक दी. मैं कहां से रास्ता खोजूं आजादी का.
कमरे में आते ही फिर रुलाई फूट पड़ी. हाय, मैं कहां फंस गई. मेरे पापा ने यह क्यों नहीं सोचा कि हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती. क्यों भूल गए कि उन की बेटी पढ़ीलिखी है. उस की छाती में भी दिल धड़कता है. क्या महज पैसे वाले होने से सारी खुशियां खरीद सकते हैं? क्यों भूल गए कि उन की बेटी के भी कुछ अरमान हैं. पापा यह क्यों भूल गए कि पिंजरा तो पिंजरा ही होता है चाहे वह सोने का हो या लोहे का.
आधी रात को महेंद्र आए तो मैं जाग रही थी. मैं महेंद्र से कुछ सवाल करना चाहती थी लेकिन वह बहुत थके हुए लग रहे थे. मेरे माथे पर एक चुंबन की मुहर लगाई और बिस्तर पर लेटते ही खर्राटे भरने लगे. मैं मन मार कर रह गई. सोचने लगी, कभी महेंद्र मुझे वक्त दें तो मैं इस पिंजरे से आजाद होने की भूमिका बनाऊं, लेकिन यह मुजरा और मुजरेवालियां वक्त दें तब न.
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वैसे महेंद्र से मुझे और कोई शिकायत नहीं थी. वह मुझे बेइंतहा प्यार करते हैं. बस, अपनी खानदानी परंपराओं में बंधे मुझे वक्त ही नहीं दे पाते. मैं ने एकदो बार दबी जबान में उन्हें मुजरे में जाने से रोकने की कोशिश भी की, तो उन्होंने कहा, ‘‘क्या तुम मुझे जोरू का गुलाम कहलवाना चाहती हो? घर के सभी मर्द देर रात तक मुजरे में बैठे रहते हैं, तो भला मैं अकेला कैसे उठ सकता हूं? तुम मेरी मजबूरी समझती क्यों नहीं.’’
दिन ब दिन मैं घुटती रही. भाभी सा और सासू मां को इसी हाल में खुश देख कर भी मैं इस जिंदगी से तालमेल नहीं बैठा पा रही थी. यह दोष किस का है? पता नहीं मेरा या मेरे पापा का है या फिर मेरे इस सौंदर्य का जिस की वजह से मैं कैद कर ली गई.
सुबह बेमतलब ससुरजी नाराज हो गए. जो मर्द दूसरी औरतों के अश्लील नाचगाने पर बिछे जाते हैं, पैसा लुटाते हैं, उन्हें घर की बहू बालकनी में खड़ी हो कर बाल भी सुखा ले तो गुस्सा क्यों आता है? यह दोगली नीति जमींदारों के खानदान की रीत ही है. नाचने वालियां भी तो औरतें ही हैं. क्या उन में कभी अपनी मांबहन का चेहरा उन्हें नजर नहीं आता है?
शादी को 8 महीने हो गए, लेकिन एक दिन भी आजादी की सांस नहीं ली. खूब खानापीना और सुंदर कपड़े, गहने पहनना ही हमारी नियति थी. हम अपने लिए नहीं इस खानदान की परंपराओं के लिए जी रही थीं और इस हवेली के मर्दों के लिए ही हमारी सांसें चल रही थीं.
सासू मां और भाभी सा बिना किसी प्रतिकार के सहजता से रह रहे थे. पता नहीं उन के दिल में इस परंपरा के खिलाफ बगावत करने का विचार क्यों नहीं आता? दोनों ही मुझे बहुत स्नेह करते थे, लेकिन मेरा मन यहां नहीं रम पा रहा था. मुझे तो कुछ कर दिखाने की ललक थी. आसमान में पंख फैला कर उड़ने का अरमान था.
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मेरी तकदीर ही कहिए कि इतने दिनों बाद महेंद्र से लंबी मुलाकात का अवसर मिला. हुआ यों कि सासू मां, ससुर, जेठ और भाभी सा किसी रिश्तेदारी में शादी के सिलसिले में बाहर गए हुए थे. महेंद्र के जिम्मे वहां की जमींदारी का काम छोड़ गए थे. मुझे सासू मां साथ ले जाना चाहती थीं, लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं थी, अत: मुझे घर पर ही छोड़ गए.
मैं बड़ी बेसब्री से महेंद्र का इंतजार कर रही थी. महेंद्र बाहर बैठक में किसी से लेनदेन कर रहे थे. मैं बेचैनी से बैठक के दरवाजे पर चक्कर काट रही थी. जब महेंद्र नहीं आए तो मुझ से और सब्र नहीं हो पाया और मैं बैठक में चली गई. वहां बैठे लोगों ने सिर झुका कर मेरा अभिवादन किया. एक बार फिर खुद के खास होने का एहसास मुझ पर हावी होने लगा, लेकिन महेंद्र ने इतना वक्त ही नहीं दिया. बोले, ‘‘तुम यहां बैठक में क्यों आ गई, अंदर जाओ, मैं अभी आता हूं.’’
मैं अपमानित सी लौट आई. महेंद्र भी तो इसी खानदान का खून है. भला वह कैसे बीवी को खुलेआम दूसरों के सामने आने देगा. मैं बेचैनी से पूरे घर में चहलकदमी करने लगी. महेंद्र का इंतजार मुझे हर पल बरसों सा लग रहा था लेकिन कोई चारा नहीं था.
आखिर महेंद्र घंटे भर बाद अंदर आए और मैं उन्हें लगभग धकेलती हुई अपने कमरे में ले गई. घर में मौजूद दासदासियों ने आश्चर्य से मुझे देखा और गरदन झुका लीं. इस वक्त उन की झुकी हुई गरदनें मुझे गर्व का एहसास नहीं करा पाईं.
महेंद्र ने कहा, ‘‘यह क्या पागलपन है निशी, मैं कहीं भागा थोड़े ही जा रहा हूं.’’
‘‘महेंद्र, मुझे तुम से जरूरी बात करनी है. तुम कुछ वक्त मुझे दो, तुम से कुछ कहना चाहती हूं.’’
‘‘हां, कहो,’’ महेंद्र आराम से पलंग पर बैठ गए.
‘‘महेंद्र, बुरा मत मानना, मैं चाहती हूं कि तुम मुझे तलाक दे दो.’’
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महेंद्र चौंक उठे, ‘‘यह क्या कह रही हो? तुम्हारा दिमाग तो ठीक है? क्या तुम नहीं जानतीं कि मैं तुम्हें कितना प्यार करता हूं? पहले दिन तुम्हें जब मैं ने खेतों में दौड़ते देखा तो मेरा दिल धड़क उठा और उसी क्षण मैं ने फैसला कर लिया था कि तुम्हें ही अपना जीवनसाथी बनाऊंगा.’’
‘‘वह तो ठीक है, महेंद्र, मुझे तुम्हारे प्यार से इनकार नहीं है लेकिन जरा सोचो कि एक आजाद पंछी को तुम सोने के पिंजरे में कैद कर लोगे तो क्या वह खुश रह सकता है? क्या तुम चाहते हो कि मेरी शिक्षा इस पिंजरे की भेंट चढ़ जाए या फिर मैं घुटघुट कर इस कैद में जान दे दूं. न मुझे सोनाचांदी चाहिए न धनदौलत. मुझे मेरी जिंदगी चाहिए जिसे मैं अपने तरीके से जी सकूं.’’
महेंद्र चुप, क्या कहे, क्या न कहे. लंबी चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, ‘‘अच्छा निशी मुझे सोचने के लिए वक्त दो.’’
महेंद्र ने बहुत सोचा और एक तरकीब निकाल ली. ‘‘ऐसा करो, तुम जितना धन ले जा सकती हो अपने सूटकेस में भर लो और अपनी पैकिंग कर लो. मैं तुम्हें तुम्हारे मायके छोड़ आऊंगा और कभी लेने नहीं आऊंगा. तलाक की बात पर घर में बवाल मच जाएगा. तुम इन जमींदारों को जानती नहीं हो. खूनखराब हो जाएगा. मेरी तरफ से तुम आजाद हो. मैं तुम्हें बेहद प्यार करता हूं इसलिए चाहता हूं कि तुम्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचे. मायके के बहाने तुम यहां से निकल जाओगी. बाद में जो होगा मैं संभाल लूंगा. दोबारा शादी भी नहीं करूंगा. जब तुम्हें मेरी जरूरत हो, मुझे याद करना मैं आ जाऊंगा. वहां तुम आजाद हो. इतना पैसा साथ ले जाना कि तुम्हें आर्थिक परेशानी से न गुजरना पड़े. मेरी दुआ है, तुम जहां भी रहो खुश रहो.’’
अब परीक्षा की घड़ी मेरी थी. मैं समझ नहीं पा रही थी कि क्या करूं. महेंद्र के प्यार में रत्ती भर भी खोट नहीं है, लेकिन मेरे सपने मेरे अरमानों का क्या होगा. सोचा था पढ़लिख कर कुछ बन कर दिखाऊंगी, लेकिन यहां तो पढ़ाई पूरी होते ही पांव में बेडि़यां पड़ गईं. लेकिन महेंद्र का क्या होगा? कब तक वह घर वालों को भरमा पाएंगे? और उन की जिंदगी बेवजह ही नरक बन जाएगी. क्या मुझे ले कर महेंद्र के कुछ सपने नहीं हैं?
नहीं, नहीं, मैं महेंद्र को छोड़ कर नहीं जा सकती. रात भर इसी ऊहापोह में करवटें बदलती रही. सुबह महेंद्र ने मुझे प्रश्नसूचक नजरों से देखा तो मैं ने नजरें झुका लीं और दौड़ कर महेंद्र से लिपट गई.