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ट्रेन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पहुंचने वाली थी. साक्षी सामान संभाल रही थी. उस ने अपने बालों में कंघी की और अपने पति सौरभ से बोली, ‘‘आप भी अपने बाल सही कर लें. यह अपने कुरते पर क्या लगा लिया आप ने? जरा भी खयाल नहीं रखते खुद का.’’

‘‘अरे यार, रात को डिनर किया था न. लगता है कुछ गिर गया.’’

तीखे नैननक्श, सांवले रंग की साक्षी मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखती थी. पति सौरभ सरकारी विभाग में बाबू था. शादी को 15 साल होने जा रहे थे. दोनों का 1 बेटा करीब 13 साल का था. लेकिन इस वक्त उन के साथ नहीं था.

साक्षी जब पढ़ती थी तब कसबे में एक ही सरकारी गर्ल्स कालेज था. उस में ही मध्यवर्गीय और उच्चवर्ग के घरों की लड़कियां स्कूल से आगे की पढ़ाई पूरी करती थीं. कसबे के करोड़पति व्यापारी की बेटी कामिनी भी साक्षी की कक्षा में थी. वह चाहती तो यह थी कि शहर में जा कर किसी बड़े नामी कालेज में दाखिला ले, लेकिन उसे इस बात की इजाजत नहीं मिली.

साक्षी और कामिनी ने सरकारी कालेज में ही बीए किया. दोनों में इतनी गहरी मित्रता थी कि दोनों की सुबहशाम साथ ही गुजरती थीं. साथसाथ पलीबढ़ी हुई दोनों सहेलियां मित्रता की एक मिसाल थीं. बीए के बाद दोनों की शादी के रिश्ते आने लगे. कामिनी की शादी हो गई. शादी के बाद वह दिल्ली में अपनी ससुराल चली गई.

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इधर साक्षी के परिजनों के पास शादी में खर्च को ज्यादा कुछ नहीं था. उस की शादी में कुछ दिक्कतें आईं. 1 साल बाद साक्षी की शादी भी कामिनी की ससुराल के कसबे में ही हो गई. दोनों सहेलियां शादी के बाद बिछुड़ गईं. साक्षी को इतना तो पता था कि कामिनी दिल्ली में है, लेकिन पताठिकाना क्या है, यह उसे नहीं पता था. वह अपने सरकारी बाबू पति सौरभ के साथ जीवन व्यतीत कर रही थी. छोटा सा कसबा ऊपर से पति एक मामूली बाबू. सुबह से शाम, शाम से रात हो जाती. सब कुछ नीरस सा लगता साक्षी को. वह सोचती यह भी कोई जिंदगी है, कुछ भी नया नहीं. उसे रहरह कर कामिनी की याद आती. सोचती कामिनी दिल्ली में है, कितने मजे में रहती होगी.

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