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बस की प्रतीक्षा में वह स्टौप के शेड में बैठी थी. गरमी के कारण पसीने से लथपथ...सामने की मुख्य सड़क से लगातार ट्रैफिक भर्राता गुजर रहा था, कारें, सामान से लदे वाहन, आटो, सिटी बसें...हाथ के बैग से उस ने मिनरल वाटर की छोटी बोतल निकाली और 3-4 घूंट पानी पी कर गला तर किया.

कुछ राहत मिली तो उसे सहसा मां के कहे वाक्य स्मरण हो आए :

‘बुरे से बुरे हालात में भी जीवन जीने के लिए कुछ न कुछ ऐसा संबल हमें मिल जाता है कि हम व्यर्थ हो गए जीवन में भी अर्थ खोज लेते हैं. हालांकि बुरे हालात का दिमाग पर इतना असर होता है कि जीने की सारी आशाएं ही जीवन से फिसल जाती हैं और आदमी हो या औरत, आत्महिंसा रूपी भावनाएं दिलोदिमाग पर हावी हो जाती हैं. जिंदगी को इसलिए हमें कस कर थामे रखने वाले साहस की जरूरत होती है. साहस बाहर से नहीं, हमें अपने भीतर ही पैदा करना होता है. वादा करो, निराशा में कोई ऐसा गलत कदम नहीं उठाओगी जो मुझे बहुत अखरे और तुम्हें अपनी बेटी कहनेमानने पर पछताना पड़े कि मैं एक कमजोर दिमाग की लड़की की मां थी. विषम स्थितियों में भी हमें अच्छी स्थितियों की तलाश करनी चाहिए. निराशा जीवन का लक्ष्य नहीं होती, आशा की डोर हमेशा हमें थामे रहना चाहिए.’

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इस महानगर के भर्राते ट्रैफिक के ही शिकार हो गए थे मनीष. अपनी मोटरसाइकिल पर सुबह दफ्तर के लिए निकले थे और आधे घंटे बाद ही अस्पताल से फोन आया था, ‘तुम्हारे पति मनीष की बस से टक्कर होने से मृत्यु हो गई है. अस्पताल में आइए, पुलिस से खानापूरी करवा कर पति का शव ले जाइए.’ विश्वास नहीं हो रहा था कि वह जो सुन रही है, वह वास्तव में सच है. हड़बड़ाई सुलभा अस्पताल के लिए निकल गई, निपट अकेली.

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