‘‘अम्मां,हैप्पी मदर्स डे.’’ ‘‘थैंक्स बेटा.’’
‘‘कौन था?’’ ‘‘ईशा थी.’’
‘‘तुम्हारी बेटियां भी न उठते ही फोन पर शुरू हो जाती हैं.’’ ‘‘आप से बात नहीं करतीं क्या?’’
‘‘मुझे इतनी बातें आती ही कहां?’’ तभी फिर फोन बज उठा. उधर इरा थी. उस का तो रोज का समय तय है. सुबह औफिस के लिए निकलते हुए जरूर फोन करती है.
‘‘अम्मां हैप्पी मदर्स डे’’ ‘‘थैंक्स बेटा’’
इरा ने हंसते हुए पूछा, ‘‘अम्मां, इस बार क्या गिफ्ट लोगी?’’ ‘‘कुछ भी नहीं बेटा. मैं ने पहले भी कहा था कि तुम तीनों एकसाथ आओ और 2-4 दिन रह जाओ.’’
‘‘आप भी अम्मां… अभी तो मुझे आए साल भी नहीं हुआ है.’’ ‘‘वह भी कोई आना था. सुबह आई थीं और अगली सुबह चली गई थीं.’’
‘‘ठीक है अम्मां प्रोग्राम बनाते हैं.’’
अगले दिन शाम के 7 बज रहे थे. सुषमाजी पति सुरेश के साथ बैठी चाय पी रही थीं. तभी दरवाजे की घंटी बजी. वे पति से बोलीं, ‘‘आज दूध वाला बहुत जल्दी आ गया.’’
‘‘दरवाजा भी खोलोगी कि बातें ही बनाती रहोगी,’’ सुरेशजी बोले. वे खिसिया कर बोलीं, ‘‘क्या दरवाजा आप नहीं खोल सकते? सारे कामों का ठेका क्या मेरा ही है?’’
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फिर दरवाजा खोलते ही सुषमाजी चौंक उठीं. दरवाजे पर छोटी खड़ी थी. वह मम्मी से एकदम से लिपट कर बोली, ‘‘हैप्पी मदर्स डे मौम.’’ ‘‘तुम ने बताया क्यों नहीं? पापा स्टेशन लेने आ जाते.’’
‘‘लेकिन मैं तो गाड़ी से आई हूं.’’ ‘‘गोलू और आदित्य कहां हैं?’’
‘‘अम्मा मैं अकेले आई हूं, गोलू समर कैंप में और आदित्य टूअर पर.’’ बेटी की आवाज सुनते ही सुरेशजी भी बाहर आ गए और फिर छोटी को बांहों में भर कर बोले, ‘‘आओ अंदर चलें. तुम्हारी मम्मी की तो बातें ही कभी खत्म नहीं होंगी.’’
पीछे से ईशा और इरा दोनों ने आवाज लगाई, ‘‘पापा हम दोनों भी हैं.’’ सुषमाजी और सुरेशजी तीनों बेटियों को एकसाथ अचानक आया देख आश्चर्यचकित हो उठे. वे खुशी से फूले नहीं समा रहे थे.
सुषमाजी का दिमाग किचन में क्याक्या है, इस में उलझ गया था. इरा बोली, ‘‘मां परेशान क्यों दिख रही हो? आप ही कब से कह रही थीं कि तीनों साथ आओ तो हम तीनों साथ आ गईं.’’
‘‘सोच रही हूं, तुम लोगों के लिए जल्दी से क्या नाश्ता बनाऊं.’’ ‘‘बस सब से पहले अपने हाथों की अदरक वाली गरमगरम चाय पिलाओ. हम सब के लिए गरमगरम जलेबियां और कचौडि़यां लाई हैं,’’
इरा बोली. ‘‘सुषमा… सुषमा… मुझे बताओ तो कौन आया है?’’
छोटी बोली, ‘‘यह तो ताईजी की आवाज लग रही है.’’ ‘‘अम्मां, आप ने बताया नहीं कि ताई यहां हैं?’’ ईशा बोली.
‘‘क्या करती, तुम लोगों को बताती, तो तुम तीनों नाराज होतीं. इसीलिए मैं ने किसी को नहीं बताया.’’
‘‘भरत और लखन ने मिल कर अपना मकान बेच दिया. जेठानीजी को अपने साथ ले गए. दोनों हैदराबाद में रहते हैं. 15 दिन एक के घर 15 दिन दूसरे के घर. रोधो कर यह व्यवस्था 7-8 महीने चली. ‘‘भरत और उस की बहू अवनी की व्यस्त दिनचर्या में भाभी के लिए किसी के पास समय ही नहीं था. सुखसुविधा के सारे साधन मौजूद थे, परंतु मशीनी जिंदगी में वह हर क्षण खुद को अकेली और उपेक्षित महसूस करती थीं. मुंह अंधेरे अवनी अपनी गाड़ी निकाल कर औफिस के लिए निकल जाती थी. 8 बजे तक भरत भी बाय मौम कह कर चल देता था.
‘‘घर में दिन भर नौकरानी रहती, जो समयसमय पर खाना, नाश्ता बना कर देती रहती थी. दोनों देर रात घर आते. डाइनिंगटेबल पर बैठ कर अंगरेजी में गिटरपिटर करते हुए उलटापुलटा खाते और फिर कमरे में घुस जाते. शनिवार व रविवार को उन्हें आउटिंग और पार्टियों से ही फुरसत नहीं रहती. ‘‘लखन के यहां की दूसरी कहानी थी. भाभी को देखते ही नौकरानी की छुट्टी कर दी जाती. सुबह बच्चों के टिफिन से ले कर रात के दूध तक का काम भाभी को करना पड़ता. भाभी काम करकर के परेशान हो जातीं, क्योंकि दीपा खुद तो कोई काम नहीं करती पर भाभी के हर काम में मीनमेख निकाल कर उन्हें शर्मिंदा करने से कभी नहीं चूकती.
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‘‘लखन बीवी के सामने जबान खोलने से डरता था और भाभी को भी चुपचाप काम करने की सलाह देता था, क्योंकि वह औफिस में दीपा से काफी जूनियर पोस्ट पर था. इसीलिए बीवी से बहुत डर कर रहता था. दीपा परीक्षाएं पास करती हुई मैनेजर बन गई थी. लखन एक भी परीक्षा पास नहीं कर सका था. ‘‘भाभी लखन के यहां ही बाथरूम में फिसल गई थीं और पैर की हड्डी टूट गई थी, भरत ने प्लास्टर बंधवा दिया था, लेकिन इन्होंने यहां आने की जिद पकड़ ली. फोन पर पापा से रोरो कर बोलीं कि भैयाजी, मुझे जीवित देखना चाहते हो, तो आ कर अपने साथ ले जाओ.’’
‘‘तुम्हारे पापा ने एक क्षण की भी देर नहीं की. टैक्सी कर के गए और भाभी को ले कर आ गए. अब तो भाभी काफी ठीक हो गई हैं. छड़ी ले कर चलने लगी हैं.’’ ताई के विषय में सारी बातें सुन कर ईशा तो सिसकती हुई अंदर चली गई और ताई का हाथ पकड़ कर बैठ गई.
इरा कहने लगी, ‘‘भरत भैया तो ऐसे नहीं थे… लखन तो शुरू से ही ऐसा था.’’
सुषमाजी चाय बना कर ताई के पास ही ले कर आ गई थीं. ताई फूटफूट कर रो रही थीं, ‘‘ईशा हम ने सुषमा को कभी चैन से नहीं रहने दिया. यह ब्याह कर
आई तो तुम्हारे ताऊजी और पापा के कान भर दिए कि पढ़ीलिखी बहू ला रहे हो सब को अपनी उंगलियों पर नचाएगी,’’ फिर अपने आंसू पोंछते हुए इरा से बोली, ‘‘तुम लोग बताओ कैसी हो? तीनों को एकसाथ देख कर मेरा कलेजा ठंडा हो गया.’’
‘‘ताईजी आप कैसी हैं?’’ ‘‘बिटिया हम तो अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं… सुषमा से हमेशा दुश्मनी करते रहे… आज वही मेरी खिदमत कर रही है.’’
तभी छोटी ताई से धीमी आवाज में यह कह कर कि अभी आई अम्मां के पास किचन में आ कर खड़ी हो गई. वह बचपन से गुस्सैल और मुंहफट थी. अम्मां से फुसफुसा कर बोली, ‘‘बहुत अच्छा हुआ… हम तीनों की नाक में दम किए रहती थी… ईशा दीदी को तो कभी चैन ही नहीं लेने देती थीं. बातबात में डांटती रहती थीं. इरा दीदी को तो काला जिराफ कह कर पुकारती थीं… बेटों का बड़ा घमंड था न.’’ फिर कुछ देर चुप रहने के बाद फिर वह क्रोधित हो कर पापा से बोली, ‘‘पापा, आप भी कम थोड़े ही हो. क्या जरूरत थी ताईजी को यहां लाने की? अम्मां के लिए आप ने एक मुसीबत खड़ी कर दी है.’’
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