आप निश्चित रूप से चौंकेंगे पर जनाब, चौंकने की कोई बात नहीं है. जो वस्तुएं भिन्नभिन्न दिखाई देती हैं उन में भी आंतरिक समानता संभव है. ये दर्शन की बातें हैं. बहरहाल हमारा उद्देश्य कुछ जन्मजात अलगअलग आइटमों की अनोखी समरूपता पर आप का ध्यान आकर्षित करना है.

पब्लिक स्कूल आज के दौर में आकाश कुसुम की तरह हैं जिन में अपने बच्चों को पढ़ाना हर आदमी का सपना रहता है. इन स्कूलों के रंगरूप और क्रियाकलाप भी बेहद आकर्षक होते हैं, अत: इन में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को हम बड़ी हसरत  भरी नजरों से निहारते हैं. परंतु इन पब्लिक स्कूलों में दाखिला यों ही नहीं मिलता बल्कि जेब की एक मोटी रकम देने की क्षमता ही एकमात्र व्यावहारिक मापदंड हुआ करती है. इन में प्रवेश मिलते ही हमें अपने बालकों के आईएएस, आईपीएस बन जाने की गारंटी जैसा सुखद एहसास होने लगता है.

मामूली आदमी के लिए तो इन स्कूलों की कल्पना भी दूर की कौड़ी है. हमारे एक मित्र भी पब्लिक स्कूलों के दीवाने हैं. रईस हैं, ऊपर से मोटी कमाई भी है अत: ऐसे स्टैंडर्ड के पब्लिक स्कूलों में प्रवेश के मापदंडों में वे पूरी तरह फिट बैठते हैं. उन का अनुभव ही इस लेख की प्रेरणा बिंदु रहा है.

अपने छोटे बेटे फरजंद को उन्होंने अभी एक नामी पब्लिक स्कूल में प्रवेश दिलाया ही था कि उन की अंतहीन समस्याओं का पिटारा खुल गया. आर्थिक पक्ष में ‘गांठ के पक्के’ होने के बावजूद उन्हें कई गैरमामूली समस्याओं से जूझना पड़ा. स्कूल की लग्जरी यूनिफौर्म, कोट, ब्लेजर, टाई आदि का तो कोई लफड़ा नहीं था. कारण, वे सब वस्तुएं तो उसी स्कूल से खरीद ली गई थीं. बस, उन को खरीदने के लिए मोटी रकम खर्च हो गई.

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