कहने को तो मैं बाजार से घर आ गई थी पर लग रहा है मेरी खाली देह ही वापस लौटी है, मन तो जैसे वहीं बाजार से मेरी बचपन की सखी सुकन्या के साथ चला गया था. शायद उस का संबल बनने के लिए. आज पूरे 3 वर्ष बाद मिली सुकन्या, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान लिए. यही तो उस की विशेषता है, अपनी हर परेशानी, हर तकलीफ को अपनी मुसकराहट में वह इतनी आसानी, इतनी सफाई से छिपा लेती है कि सामने वाले को धोखा हो जाता है कि इस लड़की को किसी तरह का कोई गम है.
‘‘अरे भाई, आज जादू की सब्जी बना रही हो,’’ विवेक, मेरे पति, के टोकते ही मैं यथार्थ के धरातल पर आ गई. अब मुझे ध्यान आया कि मैं खाली कुकर में कलछी चला रही हूं. वे शायद पानी पीने के लिए रसोई में आए थे.
‘‘क्या बात है विनि, परेशान हो?’’ इन्होंने पूछा, ‘‘आओ, बैठ कर बातें करते हैं.’’
‘‘पर खाना,’’ मेरे यह कहते ही ये बोले, ‘‘तुम्हें भी पता है, मन में इतनी हलचल ले कर तुम ठीक से खाना बना नहीं पाओगी और मैं शक्कर वाली सब्जी खा नहीं पाऊंगा.’’
मैं अपलक विवेक का चेहरा देखती रही जो मुझे, मुझ से भी ज्यादा समझते हैं.
आज एक बार फिर प्रकृति को कोटिकोटि धन्यवाद देने को मन कर रहा है कि उस ने मुझे इतना समझने वाला पति दिया है.
‘‘फिर से खो गईं,’’ विवेक ने मेरे चेहरे के सामने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘आने दो सासूमां को, उन से पूछूंगा कि कहीं आप अपनी यह बेटी कुंभ के मेले से तो नहीं लाई थीं. बारबार खो जाती है,’’ फिर इन्होंने मुझे सोफे पर बैठाते हुए कहा, ‘‘अब बताओ, क्या बात है?’’