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कमरे में प्रवेश करते ही डा. कृपा अपना कोट उतार कर कुरसी पर धड़ाम से बैठ गईं. आज उन्होंने एक बहुत ही मुश्किल आपरेशन निबटाया था.

शाम को जब वे अस्पताल में अपने कक्ष में गईं, तो सिर्फ 2 मरीजों को इंतजार करते हुए पाया. आज उन्होंने कोई अपौइंटमैंट भी नहीं दिया था. इन 2 मरीजों से निबटने के बाद वे जल्द से जल्द घर लौटना चाहती थीं. उन्हें आराम किए हुए एक अरसा हो गया था. वे अपना बैग उठा कर निकलने ही वाली थीं कि अपने नाम की घोषणा सुनी, ‘‘डा. कृपा, कृपया आपरेशन थिएटर की ओर प्रस्थान करें.’’

माइक पर अपने नाम की घोषणा सुन कर उन्हें पता चल गया कि जरूर कोई इमरजैंसी केस आ गया होगा.

मरीज को अंदर पहुंचाया जा चुका था. बाहर मरीज की मां और पत्नी बैठी थीं.

मरीज के इतिहास को जानने के बाद डा. कृपा ने जैसे ही मरीज का नाम पढ़ा तो चौंक गईं. ‘जयंत शुक्ला,’ नाम तो यही लिखा था. फिर उन्होंने अपने मन को समझाया कि नहीं, यह वह जयंत नहीं हो सकता.

लेकिन मरीज को करीब से देखने पर उन्हें विश्वास हो गया कि यह वही जयंत है, उन का सहपाठी. उन्होंने नहीं चाहा था कि जिंदगी में कभी इस व्यक्ति से मुलाकात हो. पर इस वक्त वे एक डाक्टर थीं और सामने वाला एक मरीज. अस्पताल में जब मरीज को लाया गया था तो ड्यूटी पर मौजूद डाक्टरों ने मरीज की प्रारंभिक जांच कर ली थी. जब उन्हें पता चला कि मरीज को दिल का जबरदस्त दौरा पड़ा है तो उन्होंने दौरे का कारण जानने के लिए एंजियोग्राफी की थी, जिस से पता चला कि मरीज की मुख्य रक्तनलिका में बहुत ज्यादा अवरोध है. मरीज का आपरेशन तुरंत होना बहुत जरूरी था. जब मरीज की पत्नी व मां को इस बात की सूचना दी गई तो पहले तो वे बेहद घबरा गईं, फिर मरीज के सहकर्मियों की सलाह पर वे मान गईं. सभी चाहते थे कि उस का आपरेशन डा. कृपा ही करें. इत्तफाक से डा. कृपा अपने कक्ष में ही मौजूद थीं.

मरीज की बीवी से जरूरी कागजों पर हस्ताक्षर लिए गए. करीब 5 घंटे लगे आपरेशन में. आपरेशन सफल रहा. हाथ धो कर जब डा. कृपा आपरेशन थिएटर से बाहर निकलीं तो सभी उन के पास भागेभागे आए.

डा. कृपा ने सब को आश्वासन दिया कि आपरेशन सफल रहा और मरीज अब खतरे से बाहर है. अपने कमरे में पहुंच कर डा. कृपा ने कोट उतार कर एक ओर फेंक दिया और धड़ाम से कुरसी पर बैठ गईं.

आंखें बंद कर आरामकुरसी पर बैठते ही उन्हें अपनी आंखों के सामने अपना बीता कल नजर आने लगा. जिंदगी के पन्ने पलटते चले गए.

उन्हें अपना बचपन याद आने लगा… जयपुर में एक मध्यवर्गीय परिवार में वे पलीबढ़ी थीं. उन का एक बड़ा भाई था, जो मांबाप की आंखों का तारा था. कृपा की एक जुड़वां बहन थी, जिस का नाम रूपा था. नाम के अनुरूप रूपा गोरी और सुंदर थी, अपनी मां की तरह. कृपा शक्लसूरत में अपने पिता पर गई थी. कृपा का रंग अपने पिता की तरह काला था. दोनों बहनों की शक्लसूरत में मीनआसमान का फर्क था. बचपन में जब उन की मां दोनों का हाथ थामे कहीं भी जातीं, तो कृपा की तरफ उंगली दिखा कर सब यही पूछते कि यह कौन है?

उन की मां के मुंह से यह सुन कर कि दोनों उन की जुड़वां बेटियां हैं, लोग आश्चर्य में पड़ जाते. लोग जब हंसते हुए रूपा को गोद में उठा कर प्यार करते तो उस का बालमन बहुत दुखी होता. तब कृपा सब का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए रोती, मचलती.

तब उसे पता नहीं था कि मानवमन तो सुंदरता का पुजारी होता है. तब वह समझ नहीं पाती थी कि लोग क्यों उस के बजाय उस की बहन को ही प्यार करते हैं. एक बार तो उसे इस तरह मचलते देख कर किसी ने उस की मां से कह भी दिया था कि लीला, तुम्हारी इस बेटी में न तो रूप है न गुण.

धीरेधीरे कृपा को समझ में आने लगा अपने और रूपा के बीच का यह फर्क.

मां कृपा को समझातीं कि बेटी, समझदारी का मानदंड रंगरूप नहीं होता. माइकल जैकसन काले थे, पर पूरी दुनिया के चहेते थे. हमारी बेटी तो बहुत होशियार है. पढ़लिख कर उसे मांबाप का नाम रोशन करना है. बस, मां की इसी बात को कृपा ने गांठ बांध लिया. मन लगा कर पढ़ाई करती और कक्षा में हमेशा अव्वल आती.

कृपा जब थोड़ी और बड़ी हुई तो उस ने लड़कों और लड़कियों को एकदूसरे के प्रति आकर्षित होते देखा. उस ने बस, अपने मन में डाक्टर बनने का सपना संजो लिया था. वह जानती थी कि कोई उस की ओर आकर्षित नहीं होगा. यदि मनुष्य अपनी कमजोर रग को पहचान ले और उसे अनदेखा कर के उस क्षेत्र में आगे बढ़े जहां उसे महारत हासिल हो, तो उस की कमजोर रग कभी उस की दुखती रग नहीं बन सकती. इसीलिए जब जयंत ने उस की ओर हाथ बढ़ाया तो उस ने उसे ठुकरा दिया.

कृपा का ध्यान सिर्फ अपने लक्ष्य की ओर था. एक दिन उस ने जयंत को अपने दोस्तों से यह कहते हुए सुना कि मैं कृपा से इसलिए दोस्ती करना चाहता हूं, क्योंकि वह बहुत ईमानदार लड़की है, कितने गुण हैं उस में, हमेशा हर कक्षा में अव्वल आती है, फिर भी जमीन से जुड़ी है.

उस दिन के बाद कृपा का बरताव जयंत के प्रति नरम होता गया. 12वीं कक्षा की परीक्षा में अच्छे नंबर आना बेहद जरूरी था, क्योंकि उन्हीं के आधार पर मैडिकल में दाखिला मिल सकता था. सभी को कृपा से बहुत उम्मीदें थीं.

जयंत बेझिझक कृपा से पढ़ाई में मदद लेने लगा. वह एक मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखता था. खाली समय में ट्यूशन पढ़ाता था ताकि मैडिकल में दाखिला मिलने पर उसे पैसों की दिक्कत न हो.

कृपा लाइब्रेरी में बैठ कर किसी एक विषय पर अलगअलग लेखकों द्वारा लिखित किताबें लेती और नोट्स तैयार करती थी.

पहली बार जब उस ने अपने नोट्स की एक प्रति जयंत को दी तो वह कृतार्थ हो गया. कहने लगा कि तुम ने मेरी जो मदद की है, उसे जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगा.

अब जब भी कृपा नोट्स तैयार करती तो उस की एक प्रति जयंत को जरूर देती.

एक दिन जयंत ने कृपा के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि हमारा साथ जीवन भर का हो जाए तो कैसा हो?

कृपा ने मीठी झिड़की दी कि अभी तुम पढ़ाई पर ध्यान दो, मजनू. ये सब तो बहुत बाद की बातें हैं.

कृपा ने झिड़क तो दिया पर मन ही मन वह सपने बुनने लगी थी. जयंत स्कूल से सीधे ट्यूशन पढ़ाने जाता था, इसलिए कृपा रोज जयंत से मिल कर थोड़ी देर बातें करती, फिर जयंत से चाबी ले कर नोट्स उस के कमरे में छोड़ आती. चाबी वहीं छोड़ आती, क्योंकि जयंत का रूममेट तब तक आ जाता था.

एक दिन लाइब्रेरी से बाहर आते समय कृपा ने हमेशा की तरह रुक कर जयंत से बातें कीं. जयंत अपने दोस्तों के साथ खड़ा था, पर जातेजाते वह जयंत से चाबी लेना भूल गई. थोड़ी दूर जाने के बाद अचानक जब उसे याद आया तो वापस आने लगी. वह जयंत के पास पहुंचने ही वाली थी कि अपना नाम सुन कर अचानक रुक गई.

जयंत का दोस्त उस से कह रहा था कि तुम ने उस कुरूपा (कृपा) को अच्छा पटाया. तुम्हारा काम तो आसान हो गया, यार. इस साथी को जीवनसाथी बनाने का इरादा है क्या?

जयंत ने कहा कि दिमाग खराब नहीं हुआ है मेरा. उसे इसी गलतफहमी में रहने दो. बनेबनाए नोट्स मिलते रहें तो मुझे रोजरोज पढ़ाई करने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी. परीक्षा से कुछ दिन पहले दिनरात एक कर देता हूं. इस बार देखना, उसी के नोट्स पढ़ कर उस से भी अच्छे नंबर लाऊंगा.

जयंत के मुंह से ये सब बातें सुन कर कृपा कांप गई. उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. इतना बड़ा धोखा? वह उलटे पांव लौट गई. भाग कर घर पहुंची तो इतनी देर से दबी रुलाई फूट पड़ी. मां ने उसे चुप कराया. सिसकियों के बीच कृपा ने मां को किसी तरह पूरी बात बताई.

कुछ देर के लिए तो मां भी हैरान रह गईं, पर वे अनुभवी थीं. अत: उन्होंने कृपा को समझाया कि बेटे, अगर कोई यह सोचता है कि किसी सीधेसादे इनसान को धोखा दे कर अपना उल्लू सीधा किया जा सकता है, तो वह अपनेआप को धोखा देता है. नुकसान तुम्हारा नहीं, उस का हुआ है. व्यवहार बैलेंस शीट की तरह होता है, जिस में जमाघटा बराबर होगा ही. जयंत को अपने किए की सजा जरूर मिलेगी. तुम्हारी मेहनत तुम्हारे साथ है, इसलिए आज तुम चाबी लेना भूल गईं. पढ़ाई में तुम्हारी बराबरी इन में से कोई नहीं कर सकता. प्रकृति ने जिसे जो बनाया उसे मान कर उस पर खुश हो कर फिर से सब कुछ भूल कर पढ़ाई में जुट जाओ.

मां की बातों से कृपा को काफी राहत मिली, पर यह सब भुला पाना इतना आसान नहीं था.

हिम्मत जुटा कर दूसरे दिन हमेशा की तरह कृपा ने जयंत से चाबी ली, पर नोट्स रखने के लिए नहीं, बल्कि आज तक उस ने जो नोट्स दिए थे उन्हें निकालने के लिए. अपने सारे नोट्स ले कर चाबी यथास्थान रख कर कृपा घर की ओर चल पड़ी. 2-4 दिनों में छुट्टियां शुरू होने वाली थीं, उस के बाद इम्तिहान थे. चाबी लेते समय उस ने जयंत से कह दिया था कि अब छुट्टियां शुरू होने के बाद ही उस से मिलेगी, क्योंकि उसे 2-4 दिनों तक कुछ काम है. घर जाने पर उस ने मां से कह दिया कि वह छुट्टियों में मौसी के घर रह कर अपनी पढ़ाई करेगी.

जिस दिन छुट्टियां शुरू हुईं, उस दिन सुबह ही कृपा मौसी के घर की ओर प्रस्थान कर गई. जाने से पहले उस ने एक पत्र जयंत के नाम लिख कर मां को दे दिया.

छुट्टियां शुरू होने के बाद एक दिन जब जयंत ने नोट्स निकालने के लिए दराज खोली तो पाया कि वहां से नोट्स नदारद हैं. उस ने पूरे कमरे को छान मारा, पर नोट्स होते तो मिलते. तुरंत भागाभागा वह कृपा के घर पहुंचा. वहां मां ने उसे कृपा की लिखी चिट्ठी पकड़ा दी.

कृपा ने लिखा था, ‘जयंत, उस दिन मैं ने तुम्हारे दोस्त के साथ हुई तुम्हारी बातचीत को सुन लिया था. मेरे बारे में तुम्हारी राय जानने के बाद मुझे लगा कि मेरे नोट्स का तुम्हारी दराज में होना कोई माने नहीं रखता, इसलिए मैं ने नोट्स वापस ले लिए. मेरे परिवार वालों से मेरा पता मत पूछना, क्योंकि वे तुम्हें बताएंगे नहीं. मेरी तुम से इतनी विनती है कि जो कुछ भी तुम ने मेरे साथ किया है, उस का जिक्र किसी से न करना और न ही किसी के साथ ऐसी धोखाधड़ी करना वरना लोगों का दोस्ती पर से विश्वास उठ जाएगा. शुभ कामनाओं सहित, कृपा.’

पत्र पढ़ कर जयंत ने माथा पीट लिया. वह अपनेआप को कोसने लगा कि यह कैसी मूर्खता कर बैठा. इस तरह खुल्लमखुल्ला डींगें हांक कर उस ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार ली थी. उस के पास किताबें खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, न ही इतना वक्त था कि नोट्स तैयार करता.

इम्तिहान से एक दिन पहले कृपा वापस अपने घर आई. दोस्तों से पता चला कि इस बार जयंत परीक्षा में नहीं बैठ रहा है.

उस के बाद कृपा की जिंदगी में जो कुछ भी घटा, सब कुछ सुखद था. पूरे राज्य में अव्वल श्रेणी में उत्तीर्ण हुई थी कृपा. दूरदर्शन, अखबार वालों का तांता लग गया था उस के घर में. सभी बड़े कालेजों ने उसे खुद न्योता दे कर बुलाया था.

मुंबई के एक बड़े कालेज में उस ने दाखिला ले लिया था. एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने आगे की पढ़ाई के लिए प्रवेश परीक्षाएं दीं. यहां भी वह अव्वल आई. उस ने हृदयरोग विशेषज्ञ बनने का फैसला लिया. एम.डी. की पढ़ाई करने के बाद उस ने 3 बड़े अस्पतालों में विजिटिंग डाक्टर के रूप में काम करना शुरू किया. समय के साथ उसे काफी प्रसिद्धि मिली.

इधर उस की जुड़वां बहन की पढ़ाई में खास दिलचस्पी नहीं थी. मातापिता ने उस की शादी कर दी. उस का भाई अपनी पत्नी के साथ दिल्ली में रहता था. भाई कभी मातापिता का हालचाल तक नहीं पूछता था. बहू ने दूरी बनाए रखी थी. जब अपना ही सिक्का खोटा था तो दूसरों से क्या उम्मीद की जा सकती थी.

बेटे के इस रवैए ने मांबाप को बहुत पीड़ा पहुंचाई थी. कृपा ने निश्चय कर लिया था कि मातापिता और लोगों की सेवा में अपना जीवन बिता देगी. कृपा ने मुंबई में अपना घर खरीद लिया और मातापिता को भी अपने पास ले गई.

चर्मरोग विशेषज्ञ डा. मनीष से कृपा की अच्छी निभती थी. दोनों डाक्टरी के अलावा दूसरे विषयों पर भी बातें किया करते थे, पर कृपा ने उन से दूरी बनाए रखी. एक दिन डा. मनीष ने डा. कृपा से शादी करने की इच्छा जाहिर की, पर दूध का जला छाछ भी फूंकफूंक कर पीता है.

डा. कृपा ने दृढ़ता के साथ मना कर दिया. उस के बाद डा. मनीष की हिम्मत नहीं हुई दोबारा पूछने की. मां को जब पता चला तो मां ने कहा, ‘‘बेटे, सभी एक जैसे तो नहीं होते. क्यों न हम डा. मनीष को एक मौका दें.’’

डा. मनीष अपने किसी मरीज के बारे में डा. कृपा से सलाह करना चाहते थे. डा. कृपा का सेलफोन लगातार व्यस्त आ रहा था, तो उन्होंने डा. कृपा के घर फोन किया.

डा. कृपा घर पर भी नहीं थी. उस की मां ने डा. मनीष से बात की और उन्हें दूसरे दिन घर पर खाने पर बुला लिया. मां ने डा. मनीष से खुल कर बातें कीं. 4-5 साल पहले उन की शादी एक सुंदर लड़की से तय हुई थी, पर 2-3 बार मिलने के बाद ही उन्हें पता चल गया कि वे उस के साथ किसी भी तरह सामंजस्य नहीं बैठा सकते. तब उन्होंने इस शादी से इनकार कर दिया था.

मां की अनुभवी आंखों ने परख लिया था कि डा. मनीष ही डा. कृपा के लिए उपयुक्त वर हैं. अब तक डा. कृपा भी घर लौट चुकी थी. सब ने एकसाथ मिल कर खाना खाया. बाद में मां के बारबार आग्रह करने पर डा. मनीष से बातचीत के लिए तैयार हो गई डा. कृपा. उस ने डा. मनीष से साफसाफ कह दिया कि उस की कुछ शर्तें हैं, जैसे मातापिता की देखभाल की जिम्मेदारी उस की है, इसलिए वह उन के घर के पास ही घर ले कर रहेंगे. वह डा. मनीष के घर वालों की जिम्मेदारी भी लेने को तैयार थी, लेकिन इमरजैंसी के दौरान वक्तबेवक्त घर से जाना पड़ सकता है, तब उस के परिवार वालों को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, वगैरह.

डा. मनीष ने उस की सारी शर्तें मान लीं और उन का विवाह हो गया. डा. मनीष जैसे सुलझे हुए व्यक्ति को पा कर कृपा को जिंदगी से कोई शिकायत नहीं रह गई थी. कुछ साल पहले डा. कृपा अपनेआप को कितनी कोसती थी. लेकिन अब उसे लगने लगा कि उस की जिंदगी में अब कोई अंधेरा नहीं है, बल्कि चारों तरफ उजाला ही उजाला है.

डा. कृपा धीरेधीरे वर्तमान में लौट आई. इस के बाद उस का सामना कई बार जयंत से हुआ. पहली बार होश आने पर जब जयंत ने डा. कृपा को देखा तो चौंकने की बारी उस की थी. कई बार उस ने डा. कृपा से बात करने की कोशिश की, पर डा. कृपा ने एक डाक्टर और मरीज की सीमारेखा से बाहर कोई भी बात करने से मना कर दिया.

डा. कृपा सोचने लगी, आज वह डा. मनीष के साथ कितनी खुश है. जिंदगी में कटु अनुभवों के आधार पर लोगों के बारे में आम राय बना लेना कितनी गलत बात है. कुदरत ने सुख और दुख सब के हिस्से में बराबर मात्रा में दिए हैं. जरूरत है तो दुख में संयम बरतने की और सही समय का इंतजार करने की. किसी की भी जिंदगी में अंधेरा अधिक देर तक नहीं रहता है, उजाला आता ही है.

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