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सबकुछ ठीकठाक चल रहा था कि इसी बीच एक दिन रमेशजी ने ऐसी बात की जिस से सीमा को लगा की रमेशजी उसे काफी पसंद करने लगे हैं और उन्हें उस का सान्निध्य बहुत पसंद आता है. अब वे यदाकदा बिना काम फोन भी कर लिया करते थे.

हालांकि फोन पर बातचीत का विषय चित्रकला ही होता था परंतु उसी के बीच वे अप्रत्यक्ष रूप से सीमा की खूबसूरती और सुघड़ता की प्रशंसाभर कर दिया करती थे.

शुरूशुरू में तो सीमा को यह सब बड़ा अजीब लगता था परंतु वह रमेशजी की इज्जत भी करती थी तथा मन ही मन उन के व्यक्तित्व से भी प्रभावित थी इसलिए अब उसे उन की इन सब बातों में कोई बुराई नजर नहीं आती थी बल्कि उसे ऐसा महसूस होता था कि उस के अकेलेपन के अभिशाप को मिटाने के लिए ही कुदरत ने रमेशजी को एक माध्यम बना कर भेजा है. फिर अपनी खूबसूरती की तारीफ सुनना किसे अच्छा नहीं लगता और वह भी इस ढलती उम्र में. इसलिए सीमा जोकि पहले से ही रमेशजी से प्रभावित थी धीरेधीरे उन्हें और भी अधिक पसंद करने लगी.

दोपहर का समय था कि अचानक घंटी बजी. सीमा ने देखा दरवाजे पर रमेशजी थे. दोपहर के समय इस तरह रमेशजी का आना सीमा को अटपटा तो लगा परंतु बुरा नहीं क्योंकि अब तक वह भी उन से काफी खुल चुकी थी.

‘‘अच्छा हुआ जो आप आ गए. बैठ कर गपशप करेंगे तथा आप से कला की बारीकियां भी सीख लूंगी,’’ उस ने दरवाजा खोलते हुए कहा.

कुछ देर औपचारिक बातचीत करने के बाद रमेशजी ने सीमा की आंखों में आंखें डालते हुए कहा, ‘‘सीमा तुम मु?ो बहुत अच्छी लगती हो. क्या मैं भी तुम्हें अच्छा लगता हूं?’’

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