शामके 5 बजते ही अनन्या को सहसा ध्यान आया कि आज बुधवार के दिन उस की एक कमिटमैंट थी खुद के साथ. चेहरे पर सहज फैलती मुसकान को रोक पाने में असमर्थ, उस ने जल्दीजल्दी खुद को एकत्रित करना शुरू किया कि अरे, आर्यन की मैथ्स की वर्कशीट तो उस ने कब की बना कर तैयार कर रखी है. जल्दी से उसे अध्ययन कक्ष की मेज पर रख कर वह बेटी अवनी को उठाने के लिए उस के कमरे की तरफ बढ़ी क्योंकि उसे दोपहर के विश्राम के बाद अपनी क्लासेज के लिए भी जाना था.

तमाम आपाधापी के बीच रात्रि के भोजन की भी एक रूपरेखा सी तैयार करनी थी, सो अनन्या तेज कदमों से फ्रिज की ओर बढ़ी. उस ने सब्जियां किचन के प्लेटफौर्म पर रख दीं ताकि उस की गैरमौजूदगी में भी उस की गृहसहायिका अपना काम शुरू कर सके. इन तमाम तैयारियों के बाद अनन्या ने फ्रिज के द्वार पर पति अक्षत के लिए एक छोटी सी परची लगा कर छोड़ी जिस में लिखा था, ‘‘तो फिर जल्दी ही मिलती हूं, कौफी डेट के बाद. तुम्हारी प्रिया,’’

अब 5 बज कर 20 मिनट पर वह खुद को संवारने में व्यस्त हो गई. सचमुच में कितना आनंददायक था यह विचार कि सप्ताह के बीचोंबीच उसे खुद को संवारने का मौका मिल रहा था. यह बात एक उपलब्धि से कम नहीं थी. बड़ी ही चेष्टा और मनोयोग से उस ने खुद को इस पल के लिए व्यवस्थित किया. अन्यथा घर की दिनचर्या, पति और बच्चों के साथ उन की जरूरतों को सम?ाते हुए उसे यह आभास ही नहीं रहा था कि अनन्या कौन थी और उस के जीवन का मकसद क्या था?

बढ़ती हुई जिम्मेदारियों के बीच अनन्या खुद को विस्तृत और विस्मृत दोनों ही करती जा रही थी. विवाहोपरांत गुजरते सालों में उसे यह भान ही नहीं रहा कि वह एक स्वतंत्र मनुष्य है, जिस की सोचनेसम?ाने की क्षमता और महत्त्वाकांक्षाएं अन्य लोगों की तरह ही हैं. एक स्वचालित यंत्रवत प्राणी की तरह उस का समूचा अस्तित्व उस के आसपास के लोगों की आवश्यकताओं, निर्भरताओं और उन के अनुमोदन पर ही निर्भर था.

उसे कभी यह चेतना नहीं रही कि तमाम व्यस्तताओं के बीच उस के जीवन के अनेक वसंत यों ही बीत गए और परिणामस्वरूप पिछले कई दिनों से एक तरह की अन्यमनस्कता, उत्साहहीनता और आत्मतिरस्कार सी भावना उस के मन में घर करती जा रही थी. तभी तो आशा के घर आयोजित किट्टी में एक छोटे से विषय पर सहेलियों से विमर्श करते हुए उस के सब्र का बांध टूट ही गया. विषय तो रोजमर्रा के जीवन को छूता हुआ एक छोटा सा विचार ही था, पर उस की प्रासंगिकता की चिनगारी ने उस के मन को गहराई तक उद्वेलित कर दिया, ‘‘क्या सैल्फ लव सैल्फिशनैस है?’’

बस फिर क्या था वह सोचती ही रह गई कि पीढ़ी दर पीढ़ी महिलाएं क्यों इस कथन से जू?ाती रही हैं कि क्या खुद से प्रेम स्वार्थपरता है या फिर एक तरह की आवश्यकता?

खैर, अनेक तरह के विचारों से जू?ाने के बाद उस ने यह मन ही मन सोच लिया कि वह सप्ताह में एक बार अपनी इच्छानुसार कोई ऐसा एक कार्य तो जरूर करेगी जिस से उस का मन हर्षित होता है और जिस में उसे सुख की अनुभूति हो और आज की यह कौफी डेट उसी दिशा में पहला कदम थी.

अपनी प्रिय लेखिकाओं-गरट्रूड स्टाइन और जेके राउलिंग के जीवन से प्रेरणा लेते हुए उस ने मन ही मन यह संकल्प कर लिया कि वह घर के पास ही स्थित एनबीसी में जा कर एक कप कौफी के साथ अपने आगामी जीवन की कल्पना तो कर ही सकती है. आज, बनी पार्क स्थित एनबीसी में बैठ कर सामने की सड़क पर होते हुए आवागमन, किशोरों के स्वच्छंद वार्त्तालाप, वयस्कों के आत्मविश्वास से भरे चेहरे और उन की चिंताओं में हस्तक्षेप किए बिना दिलचस्पी लेते हुए विविध घटनाक्रमों को अपने मस्तिष्क में निबंधित करते हुए उस ने मन ही मन स्वीकार किया कि खुद की अवहेलना कर के उस ने अपने प्रति बहुत बड़ा अपराध किया है.

अंतत: खुद की स्वीकारोक्ति खुद के उत्थान के लिए बहुत जरूरी है. अपनी पसंद की कैपेचीनो के घूंट लेते हुए उसे यह अनुभूति हो गई कि खुद के साथ कौफी डेट का यह निर्णय कितना ही महत्त्वपूर्ण था और साथ ही उसे जीवन के प्रति एक नई दृष्टि देने में सार्थक भी रहा. निश्चित रूप से स्वयं से प्रेम एक तरह की स्वार्थपरता कही जा सकती है, परंतु उस के बिना आत्मकल्याण और स्वाभिमान की भावना का विकास भी कदापि संभव नहीं.

कौफी के प्याले से ऊपर उठती सुगंधित भाप के साथ उस का यह अहं उड़ गया कि वह सब को हर हाल में प्रसन्न रख सकती है और यह भ्रम भी कि उस की प्रसन्नता के लिए वह दूसरों पर निर्भर है. इसी तरह की ऊहापोह और आत्मावलोचन की प्रक्रिया में लीन, अपने आसपास के जीवन को और अधिक तन्मयता के साथ अंकित करती हुई, ठीक 7 बजते ही एक मधुर मुसकान और एक नए उत्साह के साथ पृष्ठभूमि में बजते हुए मनपसंद गीत ‘लव यू जिंदगी…’ पर थिरकते हुए वह घर की ओर मुड़ चली.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...