नैना करण से अंतिम बार करीब 2 महीने पहले मिली थी. उस के बाद तो वह हमेशा कोई न कोई बहाना बना देता. वह मुलाकात भी अजीब सी रही थी. इसी वजह से आज नैना ने ठान लिया था कि वह किसी भी हाल में करण से मिल कर ही जाएगी.
एक घंटे से वह वृंदावन रैस्टोरैंट में करण का इंतजार कर रही थी. हमेशा की तरह वह सही समय पर पहुंच गई थी. यह रैस्टोरैंट शहर से हट कर मगर बहुत खूबसूरत और शांत सा था. नैना और करण अकसर यहीं मिला करते थे. आजकल करण उस के प्रति लापरवाह सा हो गया था. तभी तो वह अब तक नहीं आया था.
थक कर नैना ने उसे फ़ोन लगाया, "क्या हुआ करण, मैं कब से इंतज़ार कर रही हूं यहां."
"ओके," कह कर करण ने जल्दी से फोन काट दिया.
थोड़ी देर बाद उस का शौर्ट मैसेज आया, "यार, बेटा साथ में है. इसे कुछ दिलाना था. बेटे को घर भेज कर सीधा वहीं आ रहा हूं."
इस के करीब 20-25 मिनट बाद करण वहां पहुंचा. नैना नाराज़ थी.
करण ने सफाई दी, "यार, अब हमारा मिलना कठिन होने लगा है. बच्चे बड़े हो रहे हैं. उन्हें चकमा दे कर आना आसान नहीं होता. बीवी भी नजर रखती है."
"बीवी तो पहले भी नजर रखती थी न, करण. यह तो कोई बात नहीं हुई. जहां तक बच्चों का सवाल है, तो उन्हें बोर्डिंग स्कूल या होस्टल भेज दो या फिर उन से कह दिया करो कि औफिस के काम से जा रहा हूं."
"यार, संडे औफिस कहां होता है और फिर वे बड़े हो रहे हैं. उन के इतने दोस्त हैं. किसी ने कहीं हमें साथ देख लिया, तो बेकार शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी."