हमेशा की तरह इस बार भी जब रोहिणी और कार्तिक के बीच जम कर बहस हुई, तो कार्तिक झगड़ा समाप्त करने की गरज से अपने कमरे में जा कर लैपटौप में व्यस्त हो गया.

रोहिणी उत्तेजित सी कुछ देर कमरे में टहलती रही. फिर एकाएक बाहर चल दी.

गेट से निकल ही रही थी कि वाचमैन दौड़ता हुआ आया और बोला, ‘‘कहीं जाना है मेमसाब? टैक्सी बुला दूं?’’

‘‘नहीं, मैं पास ही जा रही हूं. 10 मिनट में लौट आऊंगी.’’

रात के 10 बज रहे थे, पर कोलाबा की सड़कों पर अभी भी काफी गहमागहमी थी. दुकानें अभी भी खुली हुई थीं और लोग खरीदारी कर रहे थे. रेस्तरां और हलवाईर् की दुकानों के आसपास भी भीड़ थी.

रोहिणी के मन में खलबली मची हुई थी. आजकल जब भी उस की पति के साथ बहस होती, तो बात कार्तिक के परिवार पर ही आ कर थमती. कार्तिक अपने मातापिता का एकलौता बेटा था. अपनी मां की आंखों का तारा, उन का बेहद दुलारा. उस की 3 बड़ी बहनें थीं, जो उसे बेहद प्यार करती थीं और उसे हाथोंहाथ लेती थीं.

रोहिणी को इस बात से कोई परेशानी नहीं थी, पर कभीकभी उसे लगता था कि उस का पति अभी भी बच्चा बना हुआ है. वह एक कदम भी अपनी मरजी से नहीं उठा सकता है. रोज जब तक दिन में एकाध बार वह अपनी मां व बहनों से बात नहीं कर लेता उसे चैन नहीं पड़ता था.

जब भी इस बात को ले कर रोहिणी भुनभुनाती तो कार्तिक कहता, ‘‘पिताजी के देहांत के बाद उन की खोजखबर लेने वाला मैं अकेला ही तो हूं. मेरे पैदा होने के बाद से मां बीमार रहतीं... मेरी तीनों बहनों ने ही मेरी परवरिश की है. मेरे पिता के देहांत के बाद मेरी मां ने मुझे बड़ी मुश्किल से पाला है. मैं उन का ऋण कभी नहीं चुका सकता.’’

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