लेखक-रत्नेश कुमार
‘‘सुनिए, ट्रेन का इंजन फेल हो गया है. आगे लोकल ट्रेन
से जाना होगा.’’
आवाज की दिशा में पलकें उठीं तो उस का सांवला चेहरा देख कर पिछले ढाई घंटे से जमा गुस्सा आश्चर्य में सिमट गया. उस की सीट बिलकुल मेरे पास वाली थी मगर पिछले 6 घंटे की यात्रा के दौरान उस ने मुझ से कोई बात करने की कोशिश नहीं की थी.
हमारी ट्रेन का इंजन एक सुनसान जगह में खराब हुआ था. बाहर झांक कर देखा तो हड़बड़ाई भीड़ अंधेरे में पटरी के साथसाथ घुलती नजर आई.
अपनी पूरी शक्ति लगा कर भी मैं अपना सूटकेस बस, हिला भर ही पाई. बाहर कुली न देख कर मेरी सारी बहादुरी आंसू बन कर छलकने को तैयार थी कि उस ने अपना बैग मुझे थमाया और बिना कुछ कहे ही मेरा सूटकेस उठा लिया. मेरी समझ में नहीं आया कि क्या कुछ क हूं.
‘‘रहने दो,’’ मैं थोड़ी सख्ती से बोली.
‘‘डरिए मत, काफी भारी है. ले कर भाग नहीं पाऊंगा,’’ उस ने मुसकरा कर कहा और आगे बढ़ गया.
पत्थरों पर पांव रखते ही मुझे वास्तविकता का एहसास हुआ. रात के 11 बजे से ज्यादा का समय हो रहा था. घनघोर अंधेरे आकाश में बिजलियां आंखें मटका रही थीं और बारिश धीरेधीरे जोश में आ रही थी.
हमारे भीगने से पहले एक दूसरी ट्रेन आ गई लेकिन मेरी रहीसही हिम्मत भी हवा हो गई. ट्रेन में काफी भीड़ थी. उस की मदद से मुझे किसी तरह जगह मिल गई मगर उस बेचारे को पायदान ही नसीब हुआ. यह बात तो तय थी कि वह न होता तो उस सुनसान जगह में मैं...