कहानी- धीरज राणा भायला
उस का कद लंबा था. अभिनेत्रियों जैसे नयन और रंग जैसे दूध और गुलाब का मिश्रण. वह लोगों की अपने इर्दगिर्द घूमती नजरों की परवा किए बिना बाजार में शौपिंग कर रही थी. उस के दोनों हाथ बैगों से भरे थे.
पिछले आधे घंटे में उस के पापा का 4 बार फोन आ चुका था और हर बार वह बस इतना बोलती, ‘‘पापा, बस 10 मिनट और.’’
आखिरकार वह बाजार की गली से बाहर मेन रोड पर खड़ी गाड़ी के पास पहुंची और सामान गाड़ी की डिकी में रखने लगी.
मौल से शौपिंग करने के बाद प्रीति थक गई थी. लंबी, पतली प्रीति देखने में बेहद खूबसूरत थी. उस का गोरा रंग उसे और मोहक बना देता था. उस के लंबे बाल बड़े सलीके से उस के मुंह पर गिर रहे थे.
उसी वक्त एक मोटरसाइकिल उस के करीब आ कर रुकी.
बाइकसवार ने जैसे ही हैल्मैट उतारा, वह चिल्लाई, ‘‘अब क्या लेने आए हो? अब तो मैं शौपिंग कर भी चुकी. 2 घंटे पहले फोन किया था. मैं कपड़े तुम्हारी पसंद के लेना चाहती थी मगर सब सत्यानाश कर दिया.’’
‘‘आ ही तो रहा था, मगर जैसे ही औफिस से निकला, बौस गेट पर आ धमका. उस को पता चल जाता तो डिसमिस कर देता. छिप कर आना पड़ता है, और रही बात पसंद की, वह तो हम दोनों की एकजैसी ही है.’’
‘‘राहुल, कब तक बहकाते रहोगे? प्रेम की बड़ीबड़ी बातें करते हो और जब भी तुम्हारी जरूरत पड़ी, बेवक्त ही मिले,’’ वह आगे बोली, ‘‘सरप्राइज भी तो देना था तुम्हें.’’
‘‘कैसा सरप्राइज?’’
‘‘मुझे देखने लड़के वाले आ रहे हैं?’’