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जब सुनयना 5 वर्ष की थी तभी उसे पता लग गया था कि वह बहुत सुंदर है. जब भी वह अपने मातापिता के साथ कहीं जाती, तो लोग उस के रंगरूप की तारीफ करते जैसे, ‘मोहन आप की बेटी कितनी प्यारी है. जब इस उम्र में ही इतनी सुंदर है तो आगे चल कर गजब ढाएगी.’

ऐसी बातें सुन कर उस के मातापिता की छाती गर्व से चौड़ी हो जाती. वे अपनी बेटी को बहुत ज्यादा लाड़प्यार देते और उस के नाजनखरे उठाने को तैयार रहते. सुनयना बातबात पर ठुनकती, मचलती. वह जान गई थी कि उस का रूप एक ऐसा औजार है जिस के जरीए वह जिस से जो चाहे करा ले. उस की एक मुसकान पर लोग निहाल हो जाते हैं और उस के माथे पर आई शिकन से उन के होश फाख्ता हो जाते हैं.

स्कूल में भी लड़के उस के आगेपीछे डोलते. कोई उस के लिए नोट्स कौपी कर रहा होता, तो कोई उस का स्कूल बैग लादे फिर रहा होता और कोई उसे अपना टिफिन खिला रहा होता. उस के ऐसे बहुत से दिलफेंक आशिक थे, जो उस की एक झलक के लिए लालायित रहते और उसे देख कर आहें भरते. सुनयना यह जान कर मन ही मन इतराती.

उस के मातापिता चौकन्ने हो गए थे. उन्होंने उस पर पहरा बैठा दिया था. उन के घर में काम करने वाली एक बूढ़ी औरत हमेशा उस के साथ कालेज भेजी जाती, जो उस की जासूसी कर के उस की हर एक गतिविधि की खबर उस के मांबाप को देती.

कालेज में जल्दी ही उस की कुछ अंतरंग सहेलियां बन गईं. सब की सब चुलबुली और नटखट थीं. उन के गुट को लोग चांडाल चौकड़ी के नाम से पुकारते. उन्हें जब पढ़ाई से फुरसत मिलती तो वे बैठ कर सोचतीं कि आज किसे बुद्धू बनाया जाए. इस खेल में उन सब को बड़ा आनंद आता था. कभी वे आवाज बदल कर किसी लड़के को फोन करतीं. उसे किसी होटल या पार्क में आ कर मिलने का निमंत्रण देतीं. और जब लड़का उस जगह पर पहुंच कर बेवकूफों की तरह इधरउधर ताकता और पलपल अधीर होता, तो वे छिप कर देखतीं और हंसी से लोटपोट होतीं. कभी वे सिनेमा का एक ऐक्स्ट्रा टिकट खरीद कर किसी बुद्धू लड़के को पकड़ाती और कहतीं ‘‘यह टिकट फालतू है. आप चाहें तो ले सकते हैं.’’

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