‘‘देख पागल मत बन... दूसरे की नहीं अपने मन की आवाज सुन कर चल. तू उस जैसी नहीं है. तेरे साथ तेरा बच्चा है, तू साधारण स्तर की पढ़ीलिखी है, बाहरी समाज का तु झे कोई अंदाजा नहीं है. अगर वह खाईखेली लड़की नवीन से तलाक भी ले ले तो भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. पर तू क्या करेगी? हम हैं ठीक है पर पापा को जानती है न कितने न्यायप्रिय हैं... तू गलत हुई तो यहां से तु झे तिनके का सहारा भी नहीं मिलने वाला. मैं कुछ भी नहीं कर सकती.’’

मां की बात सुन कर स्तब्ध रह गई रूपा कि मां ने जो कहा स्पष्ट कहा, उचित बात कही. उस के मन में शिखा कांटा बोना चाहे और वह बोने दे तो अपना ही सर्वनाश करेगी.

मां ने नवीन से भी इस विषय पर बात की, यह सोच कर कि भले ही बेटी को सम झाया हो उन्होंने पर उस के मन का कांटा जड़ से अभी नहीं उखड़ा होगा.

नवीन ने उस दिन अचानक फोन कर के रूपा से कहा, ‘‘रूपा, बहुत दिन से तुम ने कुछ खिलाया नहीं. आज रात डिनर करने आऊंगा.’’

रूपा खुश हुई, ‘‘ठीक है भैया... मैं आप की पसंद का खाना बनाऊंगी.’’

शाम को नवीन सुजीत के साथ ही आया.

रूपा ने चाय के साथ पकौड़े बनाए.

नवीन ने चाय पीते हुए पूछा, ‘‘रात को क्या खिला रही हो?’’

‘‘आप की पसंद के हिसाब से पालकपनीर, सूखी गोभी, बूंदी का रायता और लच्छा परांठे... और कुछ चाहें तो...’’

‘‘नहींनहीं, बहुत बढि़या मेनू है. तुम बैठो. हां, सुजीत तू एक काम कर. रबड़ी ले आ.’’

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