यों रमन के साथ उस का रिश्ता निभ ही रहा था लेकिन जिंदगी कोई सीधी सड़क तो है नहीं कि बस मीलोंमील एक ही दिशा में चलते रहो. मोड़ आना तो लाजिम है. रमन हर रोज उसे फोन करता है. उस से ढेर सारी बातें भी करता है. बीमार या अपसेट हो तो उस के हालचाल भी लेता है और अपनी समझ के अनुसार सलाह भी देता है लेकिन क्या इतना सब करने भर से किसी रिश्ते को मुकम्मल माना जा सकता है? शायद नहीं. देखा है उस ने.
2 दिन पौधे को प्यार से न सहलाओ तो उस की भी पत्तियां अपनी सहज चमक खो देती हैं. पालतू जानवर भी लाड़ करवाने के लिए अपने मालिक के पांवों में लोटने लगते हैं. खुद उस की अपनी बिल्ली भी तो अपनी पूंछ को झंडे की तरह ऊपर उठा कर उस की टांगों से रगड़ने लगती है. और तब वह प्यार से उस की पीठ सहला देती है. इस पूरी प्रक्रिया में मात्र कुछ ही मिनट लगते हैं लेकिन बिल्ली के चेहरे पर आए संतुष्टि के भाव छिपे नहीं रह पाते. लेकिन प्यार यदि कह कर करवाया जाए तो फिर प्यार कैसा? यह तो जबरदस्ती हुई न? वह अपने प्रेम में किसी तरह का कोई दबाव नहीं चाहती थी.
लेकिन फिर भी लगभग हरेक धर्म की थ्योरी के अनुसार जीने के लिए प्रेम को अनिवार्य माना जाता है. जब जीने के लिए प्रेम इतना ही जरूरी है तब फिर उसे हर रिश्ते में समभाव से क्यों नहीं देखा जाता? फिर से अनेक अनुत्तरित प्रश्न दिमाग की गहरी खोह में तर्कों की दीवारें टटोलते हुए भटकने लगते. यह दिमाग का भी अलग ही फंडा है, जब शरीर अस्वस्थ होता है तब इस के बेकाबू घोड़े उन अनजानी दिशाओं में बेलगाम दौड़ने लगते हैं जो स्वस्थता के समय आसपास भी नहीं होती. पिछले दिनों से आभा भी तो उन्हीं स्याह कंदराओं में भटक रही है.
पिछले सप्ताह आभा बहुत बीमार रही. मन रमन का स्नेहिल स्पर्श चाहता था. 1-2 बार उसे मैसेज भी भेजा लेकिन ‘गेट वेल सून’ के अतिरिक्त कोई जवाब उसे नहीं मिला. रमन के इसी पलायन ने उसे तोड़ कर रख दिया. हालांकि यह मन भी बहुत स्वार्थी होता है, हमेशा अपने ही पक्ष में तर्क गढ़ता है. लेकिन फिर भी आभा रमन को कटघरे में नहीं खड़ा कर पाई.
आभा ने स्वयं को समझाया कि शायद वह केवल अपना ही दर्द देख रही है. शायद वह तसवीर का दूसरा रुख नहीं देख पा रही लेकिन उस की तसवीर में 2 नहीं बल्कि 4 रुख हैं. स्वयं उस के और रमन के अतिरिक्त दोनों के जीवनसाथी भी तो हैं. उन का पक्ष कौन देखेगा?
आभा ने अपनी हकीकत को कल्पना से जोड़ दिया. अब जो स्थिति उस की स्वयं की है वहां रमन खड़ा है और खुद उस ने रमन की जगह ले ली.
“यदि रमन ऐसी आपातस्थिति में उस का साथ चाहता तो क्या वह उस के पास मौजूद होती? क्या पति उसे किसी गैरमर्द की तीमारदारी करने की इजाजत देते? क्या रमन की पत्नी उसे सहज भाव से स्वीकार कर पाती?”
सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो इन सब सवालों का जवाब न ही होता लेकिन मन कब किसी सामाजिक बंधन में बंध पाया है? वैसे भी उस ने रमन से सिवाय प्रेम के कभी कुछ चाहा भी कहां था. न कोई रुपयापैसा चाहा और न ही कभी उस की पत्नी का अधिकार लेने की चेष्टा की. फिर किसी को किस बात का डर? क्या प्रेम इतना असुरक्षित होता है? क्या उस का माथा सहला भर देने से प्रेम अपवित्र हो जाएगा या कि उस की देह नापाक हो जाएगी? प्रश्न ही प्रश्न… जवाब कोई नहीं…
“हां, वह हरेक न के बावजूद रमन के पास होती. उस का माथा सहला रही होती. पति के विरोध के बावजूद वह वहां अवश्य होती,” आभा ने दूसरा पक्ष देखा तो अपनेआप को और भी अधिक मजबूत पाया.
“रमन की पत्नी शायद डरती है कि उस का पति कोई छीन न ले लेकिन उसे आभा को कहां पति चाहिए उस का. पति तो खुद उस के पास है ही. उस के शरीर का मालिक. उस के बच्चों का पिता. दूसरी तरफ पति को भी शायद सामाजिक प्रतिष्ठा का डर भयभीत करता. पत्नी का किसी और से प्रेम उस के पौरुष को भी तो चुनौती देता ही होगा,” आभा का मन फिर से उलझनेभटकने लगा. प्रेम की परिभाषा फिर से अपने माने तलाशने लगी.
“उफ्फ… प्रेम इतना जटिल क्यों है? क्या इस का पलड़ा कभी प्रतिष्ठा से ऊपर नहीं उठ पाएगा?” आभा ने अपना सिर पकड़ लिया. उसे 4 दिन पहले का रमन से हुई बातचीत याद आ गई.
“कल अपने दोस्त की बेटी की शादी में जाना है,” कहा था रमन ने. सुनते ही आभा का चौंकना स्वाभाविक था लेकिन वह प्रत्यक्ष कुछ नहीं बोली बल्कि रमन के लिए उस के मन में एक कड़वाहट भर गई. रमन के लिए नहीं, शायद यह कड़वाहट प्रेम के लिए थी.