आज रोहित ने मु झ से वह कह दिया जिसे शायद मैं शायद सुनना भी चाहती थी और शायद नहीं भी. दिल तो कह रहा था कि उसी क्षण उस के साथ हो ले, पर हमेशा की तरह दिमाग ने उसे फिर जकड़ लिया, और हमेशा की तरह दिल हार गया. हालांकि वह उदास हो गया पर उदास होना तो इस दिल की नियति ही थी. जब भी मेरे दिल ने उन्मुक्त आसमान में स्वच्छंद उड़ान भरना चाही, जब भी मेरे दिल ने गुब्बारे की तरह हलका हो कर बिना कुछ सोचे, बिना कुछ सम झे हवा के वेग के साथ अपने को खुले आसमान में छोड़ना चाहा या जब भी मेरे दिल ने रोहित की बांहों में छिप कर जीभर कर रो लेना चाहा, हर बार इस दिमाग ने मेरे मन की भावनाओं को इतना जकड़ लिया कि मन बेचारा मन मार कर ही रह गया. मैं आखिर ऐसी क्यों हूं? मात्र 23 वर्ष की तो हुई हूं. मेरी उम्र की लड़कियां जिंदगी को कितना खुल कर जीती हैं, उठती लहरों की तरह लापरवाह, सुबह की पहली किरण की तरह उम्मीदों से भरी, पलपल को खुल कर जीती हैं. आखिर यह सब मेरी नियति में क्यों नहीं? परंतु मैं नियति को दोष क्यों दूं?
आखिर किस ने मु झे रोका है? आखिर किस को मेरी चिंता है? पापा, जिन से एक छत के नीचे रहते हुए भी शायद ही कभी मुलाकात होती है, या छोटी मां जिन्होंने न ही मु झे कभी रोका है, न ही कभी किसी बात के लिए टोका है. हम तीनों कहने को तो एक ही घर में रहते थे पर परिवार जैसा कुछ नहीं हमारे बीच, बिलकुल पटरियों की तरह जो एकसाथ रह कर भी कभी नहीं मिलतीं.
अपने कमरे में बैठी मैं आज जब अपने मन के डर को कुरेदना चाहती थी, उस से जीतना चाहती थी, तब अनायास ही मेरी नजर मां की तसवीर पर पड़ी. कितना प्यार करती थीं मु झ से, मेरी पसंद का भोजन बनाने से ले कर मु झे पार्क में ले कर जाना, मेरे साथ खेलना, मु झे पढ़ाना, मानो उन की दुनिया मु झ से शुरू हो कर मु झ पर ही खत्म होती थी. पापा तो हो कर भी कभी नहीं होते थे. मैं ने कई बार मां को पापा के इंतजार में आंसू बहाते देखा. कई बार मैं उन से कहती, ‘मां, आप पापा के लिए क्यों रोती हैं? क्यों हमेशा मेरे जन्मदिन का केक काटने से पहले उन से बारबार घर आने की गुहार लगाती हैं, जबकि पापा कभी नहीं आते और कभी घर आते भी हैं तो अपने कमरे बंद रहते हैं. मां, आप पापा को छोड़ क्यों नहीं देतीं?’
मेरे ऐसा कहने पर मां मु झे प्यार से सम झातीं, ‘बेटी, मैं ने तुम्हारे पिता को अपना सबकुछ माना है. उन की महत्त्वाकांक्षाओं ने उन के रिश्तों की जगह ले ली है. मु झे उस दिन का इंतजार करना है जब उन का यह भ्रम टूटे कि वे अपने पैसों से सबकुछ खरीद सकते हैं. यदि हम लोग उन्हें छोड़ कर चले जाएंगे तो कल जब उन का यह भ्रम टूटेगा, वे अकेले पड़ जाएंगे. तब उन के साथ कौन होगा? और यह मैं नहीं देख सकती. मु झे अपने प्यार और समर्पण पर पूर्ण विश्वास है, वह दिन जरूर आएगा.’
11 वर्ष की आयु में मां की ये दलीलें मु झे बिलकुल सम झ में नहीं आतीं. आज याद करती हूं तो लगता है, इतना प्यार और इतना समर्पण, इतना निश्छल प्रेम और उस प्रेम को पाने के लिए इतना धैर्य, कैसे कर पातीं थीं मां ये सब? और आखिर क्यों करती थीं? क्यों उन्होंने उस इंसान के साथ अपनी जिंदगी खराब कर ली जिस की नजरों में मां की कोई इज्जत नहीं थी. जिस की नजरों में मां के लिए कोई प्यार नहीं था और न ही प्यार था अपनी बेटी के लिए.
वह इंसान तो केवल पैसों की मशीन बन कर रह गया था जिस के भीतर भावनाओं ने शायद पनपना भी बंद कर दिया था. और एक दिन अचानक कार ऐक्सिडैंट में मु झ से वह ममता की निर्मल छाया भी छिन गई. मात्र 12 वर्ष की थी मैं, खूब रोई, चिल्लाई पर मेरी पीड़ा सुनने वाला कौन था. जितनी मु झे पीड़ा थी उतना क्रोध भी था. क्रोध उस पिता पर जिन्होंने मेरी मां को आखिरी बार भी देखना उचित नहीं सम झा. विदेश गए थे वे, जब यह दुर्घटना घटी. मैं ने पापा से रोरो कर जल्दी से जल्दी आने की अपील की परंतु वे मु झे टालते रहे और अंत में नानाजी ने मां की अंत्येष्टि की. याद है मु झे कितना बिलखबिलख कर रोए थे नानाजी.
बारबार अपनी बेटी के मृत शरीर को देख कर माफी मांगते ही रहे कि कैसे उन्होंने अपनी फूल सी कोमल बेटी की शादी इस इंसान के साथ कर दी. उस के बाद नानाजी मु झे अपने साथ ले गए. परंतु कुछ ही वक्त बाद पश्चात्ताप में वे भी इस कदर जले कि यह प्यारभरा साया भी मु झ से छिन गया. तब कहीं जा कर पापा आए और मु झे अपने साथ घर ले गए. मैं अपने पापा से लिपट कर खूब रोई थी. तब पहली बार पापा ने मु झ से कहा था, ‘मां चली गईं तो क्या हुआ? तुम्हारे पापा हैं तुम्हारे पास. सब ठीक हो जाएगा, बेटा. हम जल्दी ही बंगले में शिफ्ट हो रहे हैं. वहां हमारा अपना बागान होगा. तुम वहां खूब खेलना.’
पापा आज पहली बार मु झ से प्यार से बोले थे. मु झे लगा कि शायद मां की तपस्या रंग ला रही है. शायद सच में पापा बदल गए हैं. शायद मां के जाने के बाद उन्हें अपनी गलती महसूस हुई. लेकिन, कुछ ही वक्त के बाद मैं यह सम झ गई कि ऐसा कुछ नहीं था.
पापा जैसे थे वैसे ही हैं. उन्होंने मु झे आश्रय जरूर दिया परंतु कभी मु झे स्नेह नहीं दिया. हमेशा की तरह फिर उन के पास समय नहीं था. धीरेधीरे अकेले रहने की मेरी आदत ही पड़ती गई. घर से स्कूल और स्कूल से घर. पापा शायद ही कभी मेरे स्कूल आए होंगे. न कभी अच्छे अंक लाने से मेरी पीठ थपथपाई गई, न ही कभी बुरे अंक लाने पर डांटा. हां, स्कूल में अन्य बच्चों के मातापिता को देखती तो बहुत तकलीफ होती. मां तो नहीं थीं पर पिता थे मेरे, जो हो कर भी नहीं थे.
कई बार टीचर ने मु झ से कहा, ‘प्रीति, तुम अपने पिता से कहना कि वे पेरैंट्सटीचर मीटिंग में आएं, सभी आते हैं.’ मैं चुप ही रहती. मानो मैं मन से हार चुकी थी. कौन पिता? कैसे पिता? धीरेधीरे ये सब खत्म हो गया. अब कोई मु झ से कुछ नहीं कहता. स्कूल वालों को टाइम पर फीस मिल रही थी और अब मेरे पिता शहर के जानेमाने रईस थे. उन्हें कोई क्या सिखाता. इसी बीच मेरी आया ने मु झे बताया कि पापा फिर शादी करने वाले हैं.
मेरा किशोरमन अपनी मां की जगह किसी और को कैसे दे सकता था. पापा से तो मैं ने कुछ नहीं कहा. परंतु मन ही मन ठान लिया कि वो औरत जो भी हो, पापा की पत्नी तो बन सकती है परंतु मेरी मां नहीं. मैं अपनी मां की जगह किसी और को कभी नहीं दूंगी. पापा ने मां की मृत्यु से 9 महीने बाद ही दूसरी शादी कर ली. वह कौन थी? कैसी थी? न तो मैं जानती थी और न ही जानना चाहती थी. मेरे स्कूल में कई लोग मु झ से पूछते लेकिन मैं चुप रहती. फिर उन्होंने पूछना भी बंद कर दिया. मैं कहीं न कहीं हीनभावना से ग्रस्त रहने लगी. मैं लोगों की भीड़ से बस भाग जाना चाहती थी. अकेलापन ही धीरेधीरे मु झे अपना सा लगने लगा. खैर, पापा ने छोटी मां से मेरा परिचय करवाया. ‘प्रीति, इन से मिलो. इन का नाम आशा है और आज से यही तुम्हारी मां हैं.’ मैं चुप रही. एक नजर भी उठा कर उस आशा को नहीं देखा. मैं अब घर में और कैद रहने लगी. स्कूल से आते ही अपने कमरे में चली जाती. बस, कभीकभार आशा आया से कुछ बात कर लेती. छोटी मां ने कभी मु झ से कुछ बात करने की कोशिश नहीं की. और समय गुजरता गया. पापा अब भी नहीं बदले. कई बार वे छोटी मां पर चिल्लाते. लगता था कि फिर वही सब दोहराया जा रहा है.
आगे पढें छोटी मां को कभी मैं ने पापा की कमाई पर ऐशोआराम…