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रोहन परेशान था. वह नौकरी की खोज में दिनरात लैपटौप पर आंखें गड़ाए रहता. यहांवहां दौड़भाग कर इंटरव्यू भी दे रहा था, लेकिन बात नहीं बन पा रही थी. थोड़ी दिनों बाद बमुश्किल एक कालसैंटर मैं नौकरी मिल गई थी. रूपा रोहन की बांहों मे बांहें डाल कर घूमने जाना चाहती थी, परंतु उस का उतरा हुआ चेहरा देख उस का उत्साह ठंडा हो जाता. वह चिड़चिड़ाने लगी थी, क्योंकि उस के सपने टूटने लगे थे.
‘रोहन, तुम्हें सैलरी मिली होगी. चलो हम लोग आज पार्टी करेंगे,’ एक दिन वह बोली थी.

धीमी आवाज में वह बोला था, ‘चलो कहीं डोसा खा लेंगे.’

‘तुम खर्च की चिंता न करो, मेरे अकाउंट में पैसे हैं?’

‘देखो रूपा, तुम अपने पैसे बचा कर रखो. जाने क्या जरूरत पड़ जाए.’

‘तुम बिलकुल चिंता न करो, पापा से मैं कहूंगी तो वे मना नहीं करेंगे.’

वह बोला था, ‘यह मु  झे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगेगा.’

वह चिल्ला पड़ी थी, ‘तुम्हारी सैलरी जितनी है, इतना तो मैं एक दिन की शौपिंग में खर्च कर डालती थी.’
‘यह तो तुम्हें शादी करने के पहले सोचना चाहिए था.’

वह नाराज हो गई थी और उसे मायके का ऐशोआराम याद आने लगा. इस से बाद तो उस का पैसे को ले कर रोहन से अकसर   झगड़ा होने लगा था.

यदि अम्मां बीचबचाव करतीं तो वह अम्मां पर जोर से चिल्ला पड़ती थी. रोहन भला अपनी छोटी सी तनख्वाह में उस की बड़ीबड़ी फरमाइशें कैसे पूरी करता? वह उसे तंग कर मन ही मन खुश होती थी. दरअसल वह चाहती थी कि रोहन परेशान हो कर उस के साथ उस के घर चला चले, जिस से वह फिर से पहले की तरह ऐशोआराम से रह सके.

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