मम्मीडैडी को सामने देख रमन ने जैसे ही झुक कर उन के पैर छूना चाहे, तो मां बोल पड़ी, ”हमारे यहां दामाद से पैर नहीं छुआए जाते.”
“क्यों मम्मी…? बड़ों के पैर छूने में आखिर हर्ज ही क्या है..?”
“अरे भई, रीतिरिवाज तो मानने ही पड़ते हैं.”
“लेकिन, मैं इन रीतिरिवाजों से परे, शादी के बाद जब भी अपनी इस मां से मिलने आऊंगा तो पैर अवश्य ही छुऊंगा…”
मां से आगे कुछ कहते ना बन पड़ा था. वो डैडी के पास रमन को बिठा कर मुझे साथ लेती हुई किचन में घुस गई थीं. आखिर होने वाला दामाद घर जो आया था.
मेरी पीएचडी कम्प्लीट हो गई थी और रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी से अपौइंटमेंट लेटर आ चुका था. इस बीच हम कोर्ट मैरिज कर चुके थे, इसलिए रमन ने अपना रेजिगनेशन लेटर दिया और नोटिस पीरियड पूरा होते ही मुझे ले कर बैंगलोर आ गए.
अपनी ससुराल आ कर मैं सास से मिल कर बहुत प्रभावित हुई थी. वो एक ऐसी सास थीं, जो पूरी जिंदादिली और बेबाकी से अपनी बात कहने से नहीं चूकती थीं.
मुझे ससुराल में आए हुए अभी चार महीने ही हुए थे. रमन का बैंगलोर यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने के बाद का रूटीन फिक्स हो चला था.
हम दोनों एकदूसरे के प्रति पूरे समर्पण भरे प्यार में डूब चुके थे. एक दिन रात के अंतरंग क्षणों में मैं रमन से बोली, “मैं चाहती हूं कि यूनिवर्सिटी में लेक्चर बन कर अपनी डिगरी का मान रख लूं.”
“हां, चाहता तो मैं भी हूं, लेकिन लैंग्वेज प्रौब्लम कैसे फेस करोगी?” रमन मुझे अपनी बांहों में भींच कर… कुछ देर तक मेरे दिल की तेज धड़कनें सुनता रहा, फिर बोले, “सुमी, ऐसा करते हैं कि यहां की लोकल कन्नड़ भाषा तो तुम्हें मां बोलना सिखा देंगी और इंगलिश स्पीकिंग मैं सिखा देता हूं. मुझे विश्वास है कि ये दोनों भाषाएं सीखने के बाद तुम कौन्फिडेंस से बोलने लगोगी तो यूनिवर्सिटी में भी जौब लगने में कोई दिक्कत नहीं होगी.”
इस के बाद हम दोनों एकदूसरे में गहरे खो गए.
अगली सुबह जब सास को पता लगा कि मैं भी जौब करना चाहती हूं, तो वे मजाक में बोलीं, “इस का मतलब है कि बहू लाने के बाद भी चूल्हाचौका मुझे ही संभालना पड़ेगा…”
ऐसा सुन कर मैं एकदम से घबरा गई. बोली, “ऐसा आप मत सोचिए, मैं चौका भी संभाल लूंगी और जौब भी…”
“अरे पगली, तू घबरा मत. अभी मुझ में बहुत दम है. मेरा तो एमए इंगलिश से करना व्यर्थ गया, पर मैं तेरी पीएचडी पर ग्रहण नहीं लगने दूंगी. मैं ने भी तो कन्नड़ भाषा यहीं आने के बाद सीखी और मतलब भर की इंगलिश का उपयोग भी यहां मौका पड़ने पर कर लेती हूं.”
“ओह मांजी, आप जैसी सास हर लड़की को मिले,” कह कर वह उन के गले लग गई.
“देखो सुमी, तुम्हें आज मैं अपना अनुभव बताती हूं कि कोई भी भाषा हमें तब तक कठिन लगती है, जब तक हमारा मस्तिष्क उसी भाषा में शब्दों को नहीं सोचता अर्थात मस्तिष्क हिंदी में सोचता है और हम बोलना चाहते हैं इंगलिश तो निश्चित रूप से बोलने में अटक जाएंगे…
“इसे यों समझो कि तुम हिंदी का उच्चारण इसलिए अच्छा कर पाती हो कि तुम्हारा मस्तिष्क बिना समय गंवाए किसी भी वाक्य को तुरंत हिंदी भाषा में बना कर बुलवा देता है.
“ऐसा ही हर भाषा के साथ है. सब मस्तिष्क की सोच और विचारों का खेल है.
“कहने का तात्पर्य है कि प्रत्येक भाषा भावनाओं की अभिव्यक्ति से जुड़ी है. रही कन्नड़ भाषा की बात तो उस के लिए भी पहले तो नित्य प्रति बोले जाने वाले शब्दों के उच्चारण को समझना होगा और कौन शब्द जैसे है, हूं, हो का उपयोग न के बराबर करना होगा. मैं तुम्हें कल कुछ आवश्यक कन्नड़ वाक्य बोलना सिखा दूंगी.”
मां और रमन के सहयोग से तीन महीने में ही मेरी लगन काम आई और मैं अंगरेजी तो ऐसे बोलने लगी कि रमन भी हैरान रह गया और मां द्वारा सिखाई गई कन्नड़ भाषा का डर भी मेरे दिमाग से निकल गया.
मुझे भी बैंगलोर यूनिवर्सिटी में जौब मिल गई थी. तभी आगरा से डैडी का फोन आ गया. उन्होंने बताया कि मां कोविड सस्पेक्टेड हो कर होस्पिटलाइज्ड हैं और मुझे लगातार याद कर रही हैं, तो मैं अपने को रोक ना सकी. रमन को छुट्टी मिल न सकी, तो मैं फ्लाइट से आगरा पहुंच गई.
मां एक्चुअली कोविड की खबरें सुनसुन कर डिप्रेशन में आ गई थीं. फिर जब उन को तेज बुखार और खांसी हुई, तो पापा ने उन्हें घबरा कर अस्पताल में भरती करा दिया था.
लेकिन जब उन की कोविड रिपोर्ट नेगेटिव आई और 5 दिन में बुखार भी उतर गया, तो हम उन्हें घर ले आए. मेरे लगातार समझाने और समय से उन के खानपान का ध्यान रखने से वे ठीक हो गईं.
मैं वापस बैंगलोर जाने का प्लान बना ही रही थी कि अचानक पूरे भारत में कंप्लीट लौकडाउन की घोषणा कर दी गई. परिवहन के सारे साधन बंद होने के कारण आगरा में ही फंस कर रह गई. एक अजीब से भय का वातावरण आसपास हर आने वाले दिन गंभीर होता चला जा रहा था.
मेरा वो समय मायके में मां के साथ तो बीता, पर लगता रहा जैसे मुझे किसी पिंजरे में कैद कर दिया गया हो. वही घर जहां कभी मेरी किलकारियां गूंजती रही होंगी. जहां के फर्श पर मैं ने चलना सीखा. जहां मैं बड़ी हुई, पीएचडी किया, वही घर उन दिनों मेरे लिए कैदखाना बन कर रह गया.
रमन से तकरीबन रोज ही मोबाइल पर बात होती और मन करता कि अभी उड़ जाऊं और जा कर रमन की बांहों में समा जाऊं.
दोपहर में अकसर सासू मां का फोन आ जाता और वे भी मुझ से और मेरी मम्मी से बड़ी देर तक बातें करती रहतीं.
जैसेतैसे वो कठिन समय बीता और स्पेशल ट्रेनें चलाने की घोषणा हुई. रमन ने मेरा औनलाइन ट्रेन का टिकट बुक करा कर मेरे मेल पर भेज दिया.
और मैं ससुराल जाने के लिए मां से विदा ले कर राजधानी एक्सप्रेस पकड़ने आगरा कैंट स्टेशन पहुंच गई.
अचानक ट्रेन की धीमी स्पीड संकेत दे रही थी कि कोई स्टेशन आने वाला है.
मैं ने डबल कांच की काली खिड़की से बाहर चमकने वाली रोशनियों में स्टेशन पढ़ने का प्रयास किया. झांसी स्टेशन था. राजधानी एक्सप्रेस का एक और स्टापेज. गिनेचुने यात्री चढ़े.
मैं ने मन ही मन सोचा, ”ये क्या हाल कर दिया है इस कोरोना ने. फिजां में एक अजीब सी दहशत. भारत का हर स्टेशन इतना वीरान. झांसी, जहां शादी के बाद रमन के साथ इसी ट्रेन से यात्रा के दौरान इस स्टेशन से इतने यात्री चढ़े थे कि वो एसी कोच खचाखच भर गया था. और आज…?
आगरा कैंट स्टेशन से भी तो गिनती के यात्री चढ़े थे. मैं
ने कलाई घड़ी देखी, रात के 22 बज कर 40 मिनट हो चुके थे. ठीक 22 बज कर 45 पर ट्रेन चल दी.
चूंकि अमित पीछे से यात्रा करते हुए रिलैक्स था. इसी कारण उस ने मास्क अपनी जेब में रख लिया था, लेकिन मुझे अपनी बर्थ की तरफ आते देख उस ने मास्क जेब से निकाल कर पुनः पहन लिया. दाढ़ी बढ़ी होने के बावजूद भी मैं उसे पहचान चुकी थी.
अपनी तरफ से कोई भी प्रतिक्रिया न दिखाते हुए मैं ने अपनी साइड वाली लोअर बर्थ के नंबर पर गौर करते हुए बर्थ के नीचे अपना ब्रीफकेस और बैग सरकाया और अपना बेड रोल बिछाने के बाद फ्रेश हो कर आई, फिर अपनी बर्थ पर बैठते हुए परदा खींच दिया.
अपने पर्स से सैनेटाइजर निकाल कर हथेलियों और चादर, कंबल व तकिए को सैनेटाइज कर के मैं लेट गई.
मैं ने अपना मास्क उतार कर पर्स में रख लिया और साइड बर्थ की विंडो से पीछे जाते हुए खामोश आगरा स्टेशन को देखती रही.
सन्नाटे में डूबा प्लेटफार्म गुजर गया, तो मैं ने परदे की झिरी में से झांक कर देखा, अमित ऊपर वाली बर्थ पर चढ़ कर लेट गया था.
परदे को पूर्ववत कर के मैं बर्थ पर ही सीधी हो कर बैठ गई. ट्रेन रफ्तार पकड़ कर आगे बढ़ती चली जा रही थी. कुछ देर बाद जम्हाई आने पर मैं ने अपनी रिस्ट वाच पर नजर डाली. अगली तारीख का 1 बज कर 25 मिनट बजा था. मैं ने आंखें बंद कर लीं और रमन की याद करते हुए सो गई.
इस बार फिर जब ट्रेन रुकी, तो मैं ने सन्नाटे में डूबे स्टेशन के पिलर्स पर गौर से देखा, भोपाल जंक्शन था. लेटेलेटे ही उस स्टेशन की इलेक्ट्रानिक वाच में समय दिख गया 4 बज कर 35 मिनट अर्थात पौ फटने में कुछ ही देर थी.