फूलपुर गांव के एक तरफ तालाब के किनारे मंदिर था तो दूसरी तरफ ऐसा स्थल जहां साल में एक बार 9 दिनों का मेला लगता था. मंदिर के आगे गांव वालों के खेत शुरू हो जाते थे. खेतों की सीमा जहां खत्म होती थी वहां से शुरू होता था एक विशाल बाग. इस बाग के दूसरी तरफ एक पतली सी नदी बहती थी. आमतौर पर बाग के बीच के खाली मैदान का प्रयोग गांव वाले खलिहान के लिए किया करते थे पर साल में एक बार यहां बहुत बड़ा मेला लगता था. मेले की तैयारी महीनों पहले से होने लगती. मेला घूमने लोग बहुत दूरदूर से आते थे.
आज बरसों बाद पुष्पा मेले में कदम रख रही थी. तब में और आज में बहुत फर्क आ गया था. तब वह खेतों की मेंड़ पर कोसों पैदल चल के सखियों के साथ मेले में घूमती थी. आज तो मेले तक पहुंचने के लिए गाड़ी की सुविधा है. पुष्पा पति व बच्चों के साथ मेला घूमने लगी. थोड़ी देर घूमने के बाद वह बरगद के एक पेड़ के नीचे बैठ गई. पति व बच्चे पहली बार मेला देख रहे थे, सो, वे घूमते रहे.
पुष्पा आराम से पेड़ से पीठ टिका कर जमीन की मुलायम घास पर बैठी थी कि उस की नजर ऊपर पेड़ पर पड़ी. उस ने देखा, पेड़ ने और भी फैलाव ले लिया था, उस की जटाएं जमीन को छू रही थीं. बरगद की कुछ डालें आपस में ऐसी लिपटी हुई थीं जैसे बरसों के बिछड़े प्रेमीयुगल आलिंगनबद्ध हों. पक्षियों के झुंड उन पर आराम कर रहे थे. उस ने अपनी आंखें बंद करनी चाहीं, तभी सामने के पेड़ पर उस की नजर पड़ी जो सूख कर ठूंठ हो गया था. उस की खोह में कबूतरों का एक जोड़ा प्रेम में मशगूल था. उस ने एक लंबी सांस ले कर आंखें बंद कर लीं.
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