उम्र की परिपक्वता की ढलान पर खड़ी रेणु पार्क में अपनी शाम की सैर खत्म कर के बैंच पर बैठी सुस्ता रही थी. पास वाली बैंच पर कुछ लड़कियां बैठी गपशप कर रही थीं. वे शायद एक ही कालेज में पढ़ती थीं और अगले दिन की क्लास बंक करने की योजना बना रही थीं. उन की बातों को सुन कर रेणु के चेहरे पर एक चंचल सी मुसकान दौड़ गई. उसे उन की बातों में कहीं अपना अतीत झलकता सा लगा.

अपनी जिंदगी की कहानी के खट्टेमीठे पलों को याद करती रेणु कब पार्क की सैर से निकल कर अतीत की सैर पर चल पड़ी, उसे पता ही नहीं चला. अतीत के इस पन्ने पर लिखी थी करीब 30 साल पुरानी वह कहानी जब रेणु नईनई कालेज गई थी. अभी ग्रैजुएशन के पहले साल में थी. पहली बार आजादी का थोड़ा सा स्वाद चखने को मिला था वरना स्कूल तो घर के इतने पास था कि जोर से छींक भी दो तो आवाज घर पहुंच जाती थी.

घर से कौलेज पहुंचने में रेणु को बस से करीब 40-45 मिनट लगते थे. वह खुश थी कि कालेज घर से थोड़ी तो दूर है. रेणु के महल्लेपड़ोस की ज्यादातर लड़कियां इसी कालेज में आती थीं, इसलिए किसी भी शरारत को छिपाना तो अब भी आसान नहीं था. सब को राजदार बनाना पड़ता था.

महरौली के निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पलीबढ़ी रेणु के घर का रहनसहन काफी कुछ गांव जैसा ही था. दरअसल, रेणु के जैसी पारिवारिक स्थिति वाले लोग एक दोहरी कल्चरल स्टैंडिंग के बीच ? झेलते रहते थे. एक ओर पढ़ी-लिखी नई पीढ़ी अपने को महानगरीय सभ्यता के नजदीक पाकर उस ओर खिंचती थी, तो दूसरी ओर कम पढ़ी-लिखी पिछली पीढ़ी अपनी प्राचीन नैतिकता की जंजीर उनके

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