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तभी मुझे किसी बाइक की आवाज सुनाई दी. रात के सन्नाटे में यह आवाज डरावनी सी लग रही थी. मेरा दिल जोरजोर से धड़कने लगा. बाइक आ कर गेट पर रुक गई. बाइक से 2 लोग उतरे थे. वे उतर कर कुछ बातें कर रहे थे. उन की नजरें उस

सड़क को ताक रही थीं जिस से वे आए थे. शायद किसी का इंतजार था. वे रुके क्यों, सीधे घर क्यों नहीं आए, या कहीं उन की...?

मेरे मन में तरहतरह के विचार कौंधने लगे. मैं बरामदे में खड़ी हो गई. मैं ने चैनल जोर से जकड़ कर पकड़ लिया था. मेरे पैर कांप रहे थे. मुझे अस्पताल के उस वार्डबौय के हाथ के ऐक्शन का बारबार ध्यान आ जाता था. वह हथेली को नकारात्मक ढंग से हिलाता सुस्त चाल में चला जा रहा था. उस के हावभाव से मुझे लगा जैसे वह अपने असली होशहवास में नहीं था या उस ने कुछ गलत देखा था, जिस का प्रभाव उस के दिलोदिमाग में घूम रहा था.

मेरे विचारों की शृंखला फिर से तब टूटी जब मैं ने कुछ कारों और मोटरसाइकिलों की आवाजें सुनीं. उन का प्रकाश भी दूर सड़क तक फैल रहा था. कुछ ही क्षणों में तमाम कारें व मोटरसाइकिलें मुख्य रोड से लिंक रोड को मुड़ गईं. प्रांगण का गेट खुला था. वे सब कारें घर के प्रांगण में प्रवेश कर गईं. मैं ने बरामदे का चैनल खोल दिया था और जिज्ञासावश मैं बाहर आ गई. तभी कारों से महिलाएं व पुरुष बाहर निकले. महिलाओं की ओर से घुटीघुटी रोने की आवाजें आ रही थीं. ससुरजी ने भारी गले से आज्ञा दी, ‘‘अतुल को गाड़ी से बाहर निकालो.’’

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