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लेखक- नंदेश्वर

कालबेल की आवाज सुन कर दीपू ने दरवाजा खोला. दरवाजे पर एक औरत खड़ी थी. उस औरत ने बताया कि वह अरुण से मिलना चाहती है. औरत को वहीं रोक कर दीपू अरुण को बताने चला गया.

‘‘साहब, दरवाजे पर एक औरत खड़ी है, जो आप से मिलना चाहती है,’’ दीपू ने अरुण से कहा.

‘‘कौन है?’’ अरुण ने पूछा.

‘‘मैं नहीं जानता साहब, लेकिन देखने में भली लगती है,’’ दीपू ने जवाब दिया.

‘‘बुला लो उसे. देखें, किस काम से आई है?’’ अरुण ने कहा.

दीपू उस औरत को अंदर बुला लाया.अरुण उसे देखते ही हैरत से बोला, ‘‘अरे संगीता, तुम हो. कहो, कैसे आना हुआ? आओ बैठो.’’

संगीता सोफे पर बैठते हुए बोली, ‘‘बहुत मुश्किल से तुम्हें ढूंढ़ पाई हूं. एक तुम हो जो इतने दिनों से इस शहर में हो, पर मेरी याद नहीं आई.

‘‘तुम ने कहा था कि जब कानपुर आओगे, तो मुझ से मिलोगे. मगर तुम तो बड़े साहब हो. इन सब बातों के लिए तुम्हारे पास फुरसत ही कहां है?’’

‘‘संगीता, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, मैं हाल ही में कानपुर आया हूं. औफिस के काम से फुरसत ही नहीं मिलती. अभी तक तो मैं ने इस शहर को ठीक से देखा भी नहीं है.

‘‘अब छोड़ो इन बातों को. पहले यह बताओ कि मेरे यहां आने की जानकारी तुम्हें कैसे मिली?’’ अरुण ने संगीता से पूछा.

‘‘मेरे पति संतोष से, जो तुम्हारे औफिस में ही काम करते हैं,’’ संगीता ने चहकते हुए बताया.

‘‘तो संतोषजी हैं तुम्हारे पति. मैं तो उन्हें अच्छी तरह जानता हूं. वे मेरे औफिस के अच्छे वर्कर हैं,’’ अरुण ने कहा.

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