‘‘सोलमेट्स किसे कहते हैं मम्मा?’’ संवित ने बड़े प्यार से पूछा.
‘‘सोलमेट्स आत्मिक साथी होते हैं जो सामने न हो कर भी साथसाथ होते हैं पर मेरे लाल के मन में यह जिज्ञासा कैसे जाग गई?’’ मैं ने हमेशा की तरह उसे छेड़ा.
‘‘मैगजीन में पढ़ा था तो सोचा आप से पूछ लूं. आप का सोलमेट कौन है मम्मा?’’
‘‘तुम हो बेटे.’’
‘‘सच्ची?’’
‘‘हांहां.’’
सुनते ही खुश हो कर मेरे गले लग गया. उस के नजरों से ओ?ाल होते ही ‘सोलमेट’ शब्द कानों से टकराता हुआ सीधे दिल और दिमाग की सैर करता पुरानी यादों को जगाने लगा...
मैं अपने सोलमेट ‘आकाश’ को भला कैसे भूल सकती थी. हमारी दोस्ती की उम्र कुल 2 साल थी पर लगता था जैसे बरसों का नाता था. इस की शुरुआत तब हुई थी जब हमारे विभाग की ओर से 5 दिवसीय ट्रेनिंग के लिए हमें बिनसर भेजा गया था. अपने औफिस से नेहा और मैं चुने गए थे. दूसरे सैंटर से आकाश और अन्य 5 औफिसर भी थे जिन में दो उम्रदराज महिलाएं भी थीं. वहां के मौसम, हरियाली सब में एक अद्भुत सा रस था, शांति में भी मधुर संगीत था. सूर्योदय जल्दी हुआ करता. हम सवेरे उठ कर सैर पर निकलते. लौटने के बाद तैयार हो कर ट्रेनिंग क्लास के लिए जाते. नई जगह व नए माहौल का असर था कि हम सबों में एक बचपना सा जग गया था. चौक से निशाना लगाना. कागजी हवाईजहाज भी उड़ाना... 1-1 कर हम ने बचपन वाली सारी हरकतें दोहरा ली थीं.
ट्रेनिंग के बाद लंच होता और उस के बाद बस में सवार होते. आसपास की सभी देखने योग्य जगहों को कम समय में ही कवर करना था. बस में हम अंत्याक्षरी खेलते, बातें करते और सफर का पता ही नहीं लगता. घूमफिर कर लौटने में रात हो जाती और डिनर कर अपने कमरों में आ जाते. नजदीकी सारी खूबसूरत जगहों की सैर कर आए थे. अल्मोड़ा, कौशानी से तो आने का दिल ही नहीं कर रहा था.