लेखिका- रमा प्रभाकर
पता नहीं ऐसा क्यों होता था. सुधा जब भी परेशान होती थी, उस के सिर में दर्द शुरू हो जाता था. इस समय भी वह हलकाहलका सिरदर्द महसूस कर रही थी. अभी वह अलमारी में कपड़े जैसेतैसे भर कर कमरे से बाहर ही आई थी कि पीछे से विनीत आ गया.
‘‘मां, मैं सारंग के घर खेलने जाऊं?’’ उस ने पूछा.
‘‘नहीं, तुम कहीं नहीं जाओगे. बैठ कर पढ़ो,’’ सुधा ने रूखेपन से कहा.
‘‘लेकिन मां, मैं अभी तो स्कूल से आया हूं. इस समय तो मैं रोज ही खेलने जाता हूं,’’ उस ने अपने पक्ष में दलील दी.
‘‘तो ठीक है, बाहर जा कर खेलो,’’ सुधा ने उसे टालना चाहा. वह इस समय कुछ देर अकेली रहना चाहती थी.
‘‘पर मां, मैं उसे कह चुका हूं कि आज मैं उस के घर आऊंगा,’’ विनीत अपनी बात पर अड़ गया.
‘‘मैं ने कहा न कि कहीं भी नहीं जाना है. अब मेरा सिर मत खाओ. जाओ यहां से,’’ सुधा झल्ला गई.
‘‘मां, बस एक बार, आज उस के घर चले जाने दो. उस के चाचाजी अमेरिका से बहुत अच्छे खिलौने लाए हैं. मैं ने उस से कहा है कि मैं आज देखने आऊंगा. मां, आज मुझे जाने दो न,’’ विनीत अनुनय पर उतर आया.
पर सुधा आज दूसरे ही मूड में थी. उस का गुस्सा एकदम भड़क उठा, ‘‘बेवकूफ, मैं इतनी देर से मना कर रही हूं, बात समझना ही नहीं चाहता. पीछे ही पड़ गया है. ठीक है, कहने से बात समझ में नहीं आ रही है न तो ले, तुझे दूसरे तरीके से समझाती हूं...’’