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कोटिधारा अभिषेक स्वरूप, जिस में अनीताजी भीग रही थीं. कुछ प्रेम प्रार्थना के अजस्र स्रोत हो वे उसे गले लगाना चाहती थीं, लेकिन… ‘‘आप को कोई तकलीफ तो नहीं. आप सारी रात कुरसी पर बैठी रहीं?’’ वह बोला. ‘‘तकलीफ,’’ अनीताजी सोच में पड़ गईं. मन के असंभावित और गुप्त कोष्ठ में जाना कब आसान है. नारी मन की भावयात्रा ही तकलीफ का पर्याय है.

लेकिन अनीता कुछ बोल नहीं पाईं. बस इतना कहा, ‘‘मैं ठीक हूं,’’ और सहसा उन्होंने आंखें बंद कर लीं, कहीं अनिरुद्ध उन की भावनाएं न पढ़ ले. ‘‘एक अकेलापन, कुछ निर्जन सा समाया हुआ है तुम्हारे अंदर, जो बिलकुल निकलता नहीं, तुम्हें खुद को संभालना होगा,’’

वह बोला. अनीताजी स्तब्ध थीं. बिलकुल चुप रहने वाला अनिरुद्ध आज ये सब क्या बोल रहा है?  ‘‘अनिरुद्ध, कभी दूर मत जाना मुझ से, वरना…’’ अनिरुद्ध मुसकराया, ‘‘आप खतरनाक भी हैं.’’ दोनों हंसने लगे. हालांकि अनीताजी को आज अनिरुद्ध के अंदर अपने प्रति सम्मान ही नहीं कुछ और भी नजर आ रहा था, एक तरह का आकर्षण. उसी दिन अनिरुद्ध की रिपोर्ट डाक्टर ने अनीताजी को दी और पता चला कि उसे चौथी स्टेज का ब्लड कैंसर है.

दोनों चुपचाप डाक्टर को खामोशी से सुनते रहे. छुट्टी मिलने के बाद दोनों बुझे-बुझे से घर की ओर चल पड़े.  अगले 3 दिन अनिरुद्ध की बीमारी की पैरवी करते हुए अनीताजी ने ज्यादा  समय उसी के कमरे में बिताया. रात को जब वह सो जाता तो अनीताजी उसे देखती रहतीं. लौकडाउन खुल रहा था. कंपनियां अपने कर्मचारियों को वापस बुला रही थीं.

अनिरुद्ध को भी बुला लिया गया. अनिरुद्ध कुछ दुखी था. शिमला जैसी सुंदर जगह छोड़नी थी और अनीता को छोड़ कर जाना उस के लिए असंभव था. वह रुकना चाहता था लेकिन रुकने का कोई ठोस कारण भी तो नहीं था उस के पास.

अनीताजी जो चाहती थीं या वह जो सपने खुद देख रहा था, अब वह कुछ भी संभव नहीं था, बीमारी ही कुछ ऐसी थी कि वह उन का वर्तमान और भविष्य खराब नहीं करना चाहता था.  जब उस ने अनीताजी को वापस जाने की खबर दी तो वे कुछ नहीं बोलीं. एकदम चुप.

जैसे जब दर्द हद से ज्यादा बढ़ जाए तो एक नबंनैस आ जाती है, उन की वही स्थिति हो गई. जाते वक्तवह बाकी का किराया देने आया था जिस को लेने से अनीताजी ने मना कर दिया और जातेजाते उसे अपनी कविताओं की एक डायरी दे दी. उन्होंने उस को रुकने के लिए नहीं कहा. आखिर उस ने अपने दिल की बात उन से खुल कर कही भी तो नहीं थी.

अनीताजी उसे बेइंतहा प्यार देना चाहतीं थीं, लेकिन अनिरुद्ध के पास अब समय कम था.  जिस दिन अनिरुद्ध गया था उस सारा दिन अनीताजी बालकनी में बैठी रहीं. मैक्स  भी उन के पैरों के पास बैठा रहा. वे धीरेधीरे भग्न हृदय की मर्मांतक वेदना में गा रही थीं, ‘बैठ कर साया ए गुल में हम बहुत रोए वो जब याद आया, वो तेरी याद थी अब याद आया, दिल धड़कने का सबब याद आया…’

उन के गाने सिर्फ मैक्स सुनता था. नुकीले पश्चिमी भाग के पर्वत पर धुंधले से बादल, महान पर्वतीय शृंखलाएं सब नितांत अकेली. अनीताजी की तरह और पीछे का आकाश एकदम काला. शिमला की घाटी, स्याही जैसे रंग का तालाब लग रही थी. रात के सघन अंधेरे में केवल अनीताजी के अरमान जल रहे थे. सारी रात ऐसे ही बैठेबैठे बीत गई. क्या कोई इतना भी अकेला होता है.

प्रेममय होना बहुत श्रम चाहता है. मन पर काबू वैराग्य धारण करने के समान है और वह अनुशीलन का विषय है. न हो दैहिक संबंध. न की गई हों प्रेम भरी बातें. फिर भी जो स्थान किसी ने ले लिया वहां कोई और. नामुमकिन. शिमला जाग रहा था. गाडि़यों के हौर्न, लोगों की आवाजें. अनीताजी बेमन से उठीं और अंदर जा कर बिस्तर पर लेट गईं.

अनिरुद्ध नोएडा आ गया था, लेकिन शिमला से ज्यादा उसे अनीताजी याद आती रहीं. उस ने उन के बारे में बहुत सोचा. बहुत बार सोचा. लेकिन अब क्या हो सकता था, उस का शरीर भी अब उस का साथ छोड़ रहा था. उस ने बैग में से उन की लिखी डायरी निकाली और उन की कविताएं पढ़ने लगा. क्या कमाल का लिखती हैं अनीताजी.

सारी कविताओं में प्रेम और बिछोह के भाव सघन और संश्लिष्ट. नोएडा आ कर अनिरुद्ध ने थोड़े प्रयास किए और अंतत: एक ऐसी कंपनी मिली जो ‘वर्क फ्रौम होम’ के लिए राजी थी. शिमला छोड़े हुए 8 महीने हो चुके थे. अनीताजी से हफ्ते में 3-4 बार बात हो जाती थी लेकिन अनिरुद्ध ज्यादा बात नहीं करता था. ये मोह के बंधन बहुत कष्टकारी होते हैं, कल को जब वह न रहा तो ये बातें अनीताजी को और दुखी करेंगी, यही सोच कर वह बात करने से बचता.

एक दिन अनीता का फोन बजा. अनिरुद्ध के पिता बोल रहे थे. उन्होंने अनिरुद्ध को अनीता के स्केच बनाते देखा था और पूछने पर अनिरुद्ध ने सब बातें अपने पिता को बता दी थीं. उस के पिता अनीता को नोएडा बुला रहे थे ताकि आने वाले मुश्किल वक्त में वे अनिरुद्ध के साथ रह सकें.

अनीता ने कुछ नहीं सोचा और अगले ही दिन शिमला से नोएडा के लिए  निकल पड़ीं. लेकिन यह खबर वे अनिरुद्ध को नहीं देना चाहती थीं. यह सरप्राइज था. आज अनीताजी को भी नहीं पता था कि वे अनिरुद्ध के पास जाने के लिए इतनी बेचैन क्यों थीं… आज रास्ता कटते नहीं कट रहा था, सरप्राइज जो देना था उन्होंने. आखिर घुमावदार सड़कों से होते हुए शाम को अनीताजी नोएडा आ पहुंची.

ड्राइवर ने गाड़ी अनिरुद्ध के घर के बाहर पार्क की. गेट अनिरुद्ध के पिता ने खोला और अनीता ने उन के पैर छुए और अनिरुद्ध के कमरे की तरफ बढ़ गईं. अनिरुद्ध अचानक अनीता को देख कर चकित हो गया और उस के मुंह से एक शब्द नहीं निकला. वह पहले से काफी कमजोर और अपनी उम्र से बड़ा दिखाई दे रहा था.  ‘‘मिलीं भी तो किस मोड़ पर,’’ वह धीरे से बोला. ‘‘तुम्हें मेरी जरूरत है,’’ अनीता ने जवाब दिया. ‘‘अनीता मेरी बकाया जिंदगी अब सिवा दुख के तुम्हें कुछ नहीं दे सकती.’’ ‘‘मैं तुम से कुछ लेने नहीं देने आई हूं, अनिरुद्ध.’’ उस दिन के बाद से अनीता एक निष्ठावान और सच्चे साथी की तरह अनिरुद्ध की देखभाल में लग गईं.

वह ऊपर के फ्लोर पर अनिरुद्ध के साथ वाले कमरे में रहने लगीं. मैडिकल रिपोर्ट्स के हिसाब से अनिरुद्ध के पास 3 महीने से अधिक समय नहीं था. बारबार हौस्पिटल के चक्कर लगते रहते.  उन दिनों अनीता ‘जीवन और मरण की तिब्बती पुस्तक’ पढ़ रही थीं. वे न केवल  अनिरुद्ध के जीवन को संभाले हुए थीं बल्कि उस की आगे की यात्रा की भी तैयारी करवा रही थीं.

दोनों भावों के असीम सागर में डूबे रहते और उन के मृत्यु को ले कर संवाद चलते रहते.  अनीता उसे ‘बारदो’ के बारे में किताब से पढ़पढ़ कर बताती रहतीं. तिब्बती बुद्धिम में बारदो की अवस्था का वर्णन है जो मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की अवस्था है.

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