लेखिका- दिव्या शर्मा

‘‘कूड़ा...’’घर के बाहर कूड़े वाले ने जोर से आवाज लगाते हुए गेट पर हाथ मारा.‘‘यह कमीना भी उसी वक्त आता है जब इंसान जरूरी काम कर रहा होता है,’’ दृष्टि ने भुनभुनाते हुए फोन मेज पर रखा और फिर डस्टबिन उठा कर बाहर की ओर लपकी.

बाहर जा कर देखा तो कूड़े वाला 3 मकान छोड़ कर खड़ा था और सब के कूड़े में से कूड़ा छांट रहा था.

‘‘अब आ कर ले जा... कब तक हाथ में कूड़ा लिए खड़ी रहूंगी,’’ तमतमा कर वह चिल्लाई.

‘‘आ रहा हूं 2 मिनट रुकिए,’’ उस ने जवाब दिया और फिर से कूड़ा छांटने लगा.

‘‘अब इस का भी इंतजार करो... कुछ कह दो तो नखरे दिखाने लगेंगे. यह इन्टौलरैंस किसी को दिखाई नहीं देती,’’ बुदबुदाते हुए वह डस्टबिन पटक अंदर चली गई और फोन उठा कर बाहर आ गई तथा फेसबुक पर ‘इन्टौलरैंस का शिकार होती महिलाएं’ शीर्षक पर लिखे गए लेख पर चल रही बहस में शामिल हो गई.

‘सब से ज्यादा बरदाश्त कर रही हैं हम औरतें. हर जगह, हर संस्कृति में हमें दबाया जाता है,’ दृष्टि ने प्रतिउत्तर में एक टिप्पणी लिख दी थी.

‘कौन दबा रहा है मैडम? असल में औरतें बहुत होशियार होती हैं. फायदे के लिए खुद को बेचारी बनाए रखना चाहती हैं,’ किसी ने उस की टिप्पणी के उत्तर में लिख दिया.

‘औरतें कभी फायदा नहीं उठातीं, बल्कि तुम जैसे लोग अपनी मां का भी फायदा उठाते हो,’ उस की महिला मित्र ने जवाबी टिप्पणी लिख दी.

इस के बाद जैसे सब ने उस के विरुद्ध मोरचा ही खोल दिया.

किसी ने लिखा कि महावारी पर नौटंकी करतीं ये औरतें ?ाठा फैमिनिज्म का एजेंडा चला रही हैं. किसी ने उच्छृंखल कहा तो किसी ने लिखा कि इसे औरतों के साथ न जोड़ो. किसी ने लिखा कि यह तुम्हारा ?ाठा नारीवाद है और किसी ने वामपंथी कह कुछ गालियां लिख दीं.

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