बात सन 1581 के शुरुआती दिनों की है. अकबर के संरक्षक बैरम खां के बेटे अब्दुर्रहीम खानखाना के पास कवि का कोमल दिल ही नहीं शाही आनबानशान और मुगल साम्राज्य के लिए मरमिटने का जज्बा भी था. उस के बाजुओं में कितनी ताकत थी यह उन्होंने गुजरात विजय, मेवाड़ के कुंभलनेर और उदयपुर के किले पर अधिकार कर के साबित कर दिया था.

बादशाह अकबर ने अब्दुर्रहीम की बहादुरी, ईमानदारी और समर्पण के भाव को देख कर ही उसे ‘मीर अर्ज’ की पदवी से नवाजा तो इस में कोई पक्षपात नहीं था, बल्कि वे जानते थे कि कलम और तलवार के धनी रहीम खानखाना कूटनीति के भी अच्छे जानकार हैं, तभी तो बादशाह ने उन्हें मेवाड़ मामले और खास कर महाराणा प्रताप की चट्टानी आन को तोड़ने के लिए अजमेर की सूबेदारी सौंपी थी. जिस काम को मानसिंह जैसा सेनापति और खुद बादशाह अकबर नहीं कर सके उस काम को करने के लिए खानखाना को अजमेर भेजना और वह भी यह कह कर कि शेर को जिंदा पकड़ कर दरबार में पेश करना है, कुछ अजीब लगता है लेकिन इस में कहीं न कहीं एक नायक की काबिलीयत के प्रति एक बादशाह का विश्वास भी झलकता है.

अजमेर आ कर रहीम ने पहले बेगमों, बांदियों, बच्चों को अस्त्रशस्त्र, रसद समेत शेरपुर के किले में सुरक्षित रखा ताकि उन की गैरमौजूदगी में वे सब सुरक्षित रह सकें. अब बेगमें क्षत्राणियां तो हैं नहीं कि पति को लड़ाई में भेज कर खुद किले में तीर, भाले, तलवार चलाने का अभ्यास करती रहें. यह तो शाही फौज के साथ सुरक्षा के साए में रहने वाली हरम की औरतें हैं जिन्हें अपनी अस्मत की रक्षा के लिए मर्दों पर ही निर्भर रहना है क्योंकि इसलाम धर्म इस से आगे की उन्हें इजाजत नहीं देता.

अब्दुर्रहीम खानखाना किले के विश्रामगृह में बैठे पसोपेश में हैं, परेशान हैं, सोच रहे हैं पर समझ नहीं पा रहे कि कैसे इस अरावली के शेर को काबू में करें. राणाप्रताप सिर्फ मेवाड़ पर नहीं, लोगों के दिलों पर राज करता है. आन का पक्का, भीलों का राजा नहीं उन का साथी है. कोई तो उस की कमजोरी पकड़ में नहीं आ रही जिस के सहारे वह आगे बढ़े. सारे सियासी दांवपेच उन की बेखौफ दिलेरी के सामने फीके पड़ जाते हैं.

तनमन में मेवाड़ प्रेम और स्वदेश सम्मान की रक्षा का संकल्प लिए यह राणा बिना समुचित सेना और हथियारों के भी शाही सेना पर भारी पड़ जाता है. भीलों का रणकौशल गजब का है. उन की पत्थरों और तीरों की मार के आगे मुगलिया सेना के पांव उखड़ जाते हैं.

आखिर क्या हुआ हल्दी घाटी में. राजा मानसिंह युद्ध जीत गए, उदयपुर छीन लिया, लेकिन क्या वाकई यह मुगलिया फौज की जीत थी? सारी रसद लुट गई, न राणा बंधे न उन का कुंवर. खाली हाथ भूखीप्यासी सेना को ले कर मानसिंह वापस आगरा लौटे थे. तो क्या राजा मानसिंह का शाही स्वागत हुआ था? नहीं, किस तरह इस बेकाबू राणा को काबू में करें यह वह समझ नहीं पा रहे.

अचानक उन की बड़ी बेगम ने विश्राम घर में प्रवेश किया और बोलीं, ‘‘क्या बात है मेरे सरताज, बडे़ सोच में हैं. कोई परेशानी?’’

‘‘परेशानी ही परेशानी है बेगम, एक हो तो बताएं. आप को याद है न हल्दी घाटी से लौटने पर मानसिंह की कितनी बेइज्जती हुई थी. बादशाह की पेशानी पर बल थे और उन्होंने कहा था कि क्या मानसिंह उम्मीद करते हैं कि उन की इस शर्मनाक जीत पर हम जश्न मनाएंगे? माबदौलत तो उन की शक्ल भी देखना नहीं चाहते.’’

‘‘हां, मुझे याद है,’’ बड़ी बेगम ने कहा, ‘‘बादशाह ने बदायूनी को तो सोने की मोहरों से नवाजा था और मिर्जा राजा से नाराज ही रहे थे.

‘‘बादशाह तो इतने नाराज थे कि उस के 3 महीने बाद वे खुद ही मुहिम पर निकले थे और 1 नहीं 3 हमले  राणा पर किए थे.’’

‘‘तो राणा कौन से बादशाह के हाथ आ गए थे,’’ चिंता से छटपटा रहे रहीम ने कहा, ‘‘अरे बेगम, उस के बाद भी तो जगहजगह थाने बनाए गए, हमले किए गए, लेकिन राणा के छापामारों ने मुजाहिदखां जैसे हैवानी थानेदार को भी मार डाला. एक साल बाद 15 अक्तूबर, 1577 को शाहबाज खां को भेजा गया. उस का खौफ तो जरूर फैला लेकिन वह भी तो बेकाबू राणा को बांधने में नाकाम ही रहा. 3 साल उन्हीं अरावली की पहाडि़यों में झख मारने के बाद खाली हाथ ही तो लौटा था. फिर अजमेर के सूबेदार बने दस्तम खान. वह मेवाड़ क्या जाते जब आमेर में ही दम तोड़ना पड़ा.’’

‘‘लेकिन मेरे हुजूर, आप यह सोचिए कि इन सब के बाद जब यह तय हुआ कि किसी खास बंदे को इस बेहद संगीन मामले से निबटने को भेजा जाए तो बादशाह सलामत को सिर्फ आप सूझे. कितना विश्वास है उन को आप पर और आप की काबिलीयत पर. आप को तो खुश होना चाहिए.’’

‘‘बेगम, आलमपनाह का यही भरोसा तो मुझे खाए जा रहा है. सोचिए, क्या होगा अगर यह भरोसा टूट गया?’’ रहीम वाकई परेशान थे.

‘‘इस तरह हिम्मत हारना आप को शोभा नहीं देता, हुजूर. पूरे हौसले के साथ टूट पडि़ए दुश्मनों पर. आप के सामने वह है क्या भला? आप भूल गए गुजरात विजय को जब आप ने बिना मदद का इंतजार किए सिर्फ 10 हजार सिपाहियों को साथ ले कर सुलतान मुजफ्फर की 1 लाख पैदल और 40 हजार घुड़सवार सेना को परास्त कर दिया था.’’ बेगम अब्दुर्रहीम खानखाना को प्रोत्साहित तो कर रही थीं पर उन के मन में भी डर था. वह भी जानती थीं कि भरोसा टूटने पर बादशाह कैसा कहर बरपा करते हैं.

‘‘बेगम, आप ख्वाहमख्वाह मेरी झूठी हौसलाअफजाई मत कीजिए. क्या आप को पता नहीं कि मेरे पीछे उधर आगरा में साजिशों का दौर चल रहा होगा, बादशाह के कान भरे जा रहे होंगे. अब्बा हुजूर ने बादशाह को इस लायक बनाया, गद्दीनशीन कराया, राजकाज संभाला, उन्हें सियासत सिखाई. जब उन्हें बेइज्जत  करने में बादशाह को मिनट नहीं लगा तो भला मेरी बिसात क्या है? आप को शायद पता नहीं है कि हुमायूं की शिकस्त के बाद शहंशाह शेरशाह ने अब्बा की मिन्नतें की थीं कि वह उन के साथ ही रहें लेकिन अब्बा हुजूर ने हिंदुस्तान के शहंशाह का साथ छोड़ कर हुमायूं का साथ दिया था.’’

अपने पति को शायद ही कभी इतने भावावेश में देखा होगा बेगम ने. अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत और हिंदी भाषाओं पर समान अधिकार रखने वाले रहीम बड़े गंभीर व्यक्ति थे.

बेगम बोलीं, ‘‘हां, मेरे सरताज, मुझे तो यह भी पता है कि जब बादशाह अकबर गद्दी पर बैठे तो उन का सदर मुकाम सरहिंद था, क्योंकि दिल्ली और आगरा पर अफगानों की तलवार मंडरा रही थी. इस मुसीबतजदा बादशाह को हेमू से निजात अब्बा हुजूर ने ही दिलाई थी. यही नहीं अब्बा हुजूर ने बादशाह की हिचकिचाहट के बावजूद निहत्थे हेमू को मार कर और सिकंदर शूरी से समर्पण करवा कर इस बड़ी सल्तनत की नींव डाली थी.’’

अबुल फजल भी अकबरनामा में स्वीकारते हैं, ‘‘बैरमखां वास्तव में सज्जन था और उस में उत्कृष्ट गुण थे. वस्तुत: हुमायूं और अकबर दोनों ही सिंहासन प्राप्ति के लिए बैरमखां के ऋणी थे.’’

खानखाना के चेहरे पर फिर वही बेबस हंसी खेल गई, ‘‘क्या अब्बा उस दर्दनाक मौत के हकदार थे जो उन्हें पाटन में मुहम्मदखां के हाथों मिली? बोलिए बेगम, क्या मेरा डर नाजायज है?’’ उन्हें पिता की स्वामिभक्ति और बदले में मिला अपमान, धोखा, मौत आज बहुत विचलित कर रहा था. वह तो वैसे भी बड़े, नेक, ज्ञानी और नम्र थे. उन के बारे में मशहूर है कि वह दान करते समय अपनी नजरें नीचे रखते थे. कारण पूछने पर उत्तर देते-

‘‘देनदार कोई और है, भेजत है दिन रैन,

लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन.’’

ऐसे रहीम खानखाना आज महाराणा को कुचलने के अभियान पर हैं. अब जो भी हो, काम तो करना ही है यह सोच कर उन्होंने कहा, ‘‘बेगम, रात बहुत हो गई है. आप सो जाएं, कल सुबह मैं फौज के साथ मुहिम पर निकलूंगा. आप सब हिफाजत से रहें इस का मैं ने पक्का बंदोबस्त कर दिया है. आप किसी भी तरह की फिक्र न करें.’’

सुबह खानखाना मेवाड़ के भीतरी भाग की खाक छानने के लिए कूच कर गए. उन का मुख्य लक्ष्य था महाराणा को बांधना, विवश करना. दिन बीत चुके थे, लेकिन इस जंगली चीते का कुछ भी अतापता नहीं लग रहा था. थकेहारे तंबू  में बैठे दूसरे दिन की योजना बना रहे थे तभी एक विश्वस्त गुप्तचर भागता हुआ आया.

‘‘हुजूर, गजब हो गया. शेरपुर का किला राणा ने लूट लिया, सारी रसद, हथियार सबकुछ…’’ गुप्तचर हांफता हुआ बोला.

‘‘शेरपुर का किला? क्या? रसद, हथियार और उस में रह रहे लोग, बेगम, बांदियां बच्चे?’’ रहीम खानखाना यह कह कर बिलबिला उठे. उन की आत्मा कांप उठी, आंखों के आगे अंधेरा छा गया. उन औरतों की करुण चीत्कार से उन के कान फटने लगे जिन्हें समयसमय पर मुगल सैनिकों ने रौंदा था. उन्हें याद आई 25 फरवरी, 1568 की बादशाह की चित्तौड़ विजय, जब किले में पहुंचने पर हजारों नारियों की धधकती हुई चिताग्नि ने उन का स्वागत किया था.

एक कमजोर इनसान की तरह अब्दुर्रहीम खानखाना भी मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि प्रताप के निवास में पहुंचने से पहले उस की बेगमों को मौत आ जाए. तभी उन्हें ध्यान आया कि  जंगलों की खाक छानने वाला राणा भला हरम क्या रखता होगा. लेकिन फिर भी औरतें बरबाद तो हो ही सकती हैं.

‘‘कैसे बचाएं उन की अस्मत, यह सवाल जेहन में आते ही रहीम के मुंह से निकला, ‘‘हम तो न दीन के रहे न दुनिया के. अब करें तो क्या?’’

और तभी खानखाना गा उठे:

‘‘सुमिरों मन दृढ़ कर कै, नंदकुमार,

जो वृषभान कुंवारि के प्रान अधार.’’

वे सिसक उठे और अपने ही हाथों से चेहरा ढक कर निढाल पड़ गए कि  तभी कानों में स्वर गूंजा, ‘हुजूर, हुजूर, उठिए, आप से मिलने कोई दूत आया है. कहता है उसे महाराणा ने भेजा है.’

‘‘क्या महाराणा ने भेजा है? उसे बाइज्जत पेश करो. उस के साथ कोई भी बदसलूकी नहीं होनी चाहिए.’’

आगंतुक आया. अब्दुर्रहीम खानखाना उसे देखते रह गए. गोराचिट्टा रंग, ऊंचा कद, मजबूत काठी. चेहरे पर ऐसा रुआब जो राजाओं के चेहरे पर होता है. वह उसे देख कर हैरान रह गए और सोचने लगे, दूत ऐसा है तो राणा खुद कैसा होगा? लेकिन प्रकट में पूछा, ‘‘कहिए, क्या खिदमत करें आप की?’’

युवक की रोबीली आवाज गूंज उठी, ‘‘सूबेदार साहब, आप मेरी खिदमत क्या करेंगे. मैं अकेले में आप से कुछ बात करना चाहता हूं, अगर आप चाहें तो.’’

रहीम ने हाथ उठाया तो सिपाही बाहर चले गए. उन्होंने कहा, ‘अब आप कहिए?’

आगंतुक का गंभीर स्वर फूटा, ‘‘मैं एकलिंग महाराज के दीवान महाराणा प्रताप का एक सेवक हूं. उन्होंने ही मुझे आप के पास भेजा है.’’

‘‘हांहां कहिए, हमें उन की सभी शर्तें मंजूर होंगी,’’ अजमेर के सूबेदार अपने धड़कते दिल पर काबू रख कर बोले, ‘‘बस, एक बार राणा बादशाह सलामत के हुजूर में चल पड़ें और दरबार में उन्हें कोर्निश कर लें फिर मेवाड़ के जो हिस्से छीन लिए गए हैं वे सभी उन्हें वापस मिल जाएंगे.’’

‘‘कोर्निश, हांड़मांस के उस मामूली इनसान को. वह है क्या? एक आक्रमणकारी की अत्याचारी औलाद. सूबेदार साहब, वह आप का बादशाह होगा. हमारे राणा का तो वह बस, एक प्रतिद्वंद्वी है.’’

अब्दुर्रहीम खानखाना का हाथ म्यान पर गया तो उस युवक का खनकदार स्वर उभरा, ‘‘सूबेदार साहब, तैश मत खाइए. पहले पूरी बात सुनिए. राजनीति से ऊपर उठिए. मैं किसी और उद्देश्य से आया हूं.’’

खानखाना बोले, ‘‘कहिए, क्या चाहते हैं आप के राणा हम से?’’

‘‘कुछ देना चाहते हैं आप को. गलती से आप के बच्चे, बेगमें बंदी बना ली गई हैं, उन्हें हमारे राणा लौटाना चाहते हैं, बस.’’

ऐसे होते हैं राजपूत. वे हैरान थे. फिर मिर्जा राजा क्या राजपूत नहीं? उन का तो ऐसा किरदार नहीं. क्या वाकई उन्हें काफिर कहा जा सकता है? सोचतेसोचते भी खानखाना प्रकट में बोले, ‘‘तो भला इस में पूछना क्या? यह तो मेहरबानी है हम पर.’’

‘‘नहीं, यह तभी संभव हो सकता है जब आप हमारा साथ दें. पालकियां आएंगी लेकिन उन्हें रास्ते में कोई रोकेगा नहीं, टोकेगा नहीं. वे सीधे आप के पास आएंगी. मंजूर है तो बोलिए.’’

खानखाना सोच में पड़ गए. उन्हें अलाउद्दीन खिलजी का किस्सा याद आया. डोलियां चित्तौड़ की ही तो थीं. कहीं यह शातिर प्रताप की कोई चाल तो नहीं. समझ में नहीं आता क्या करें. दिमाग का कहना है इस नौजवान को अभी बांध लो, मन कहता है, ‘इस की बात मानो.’ तभी वह नौजवान हंस पड़ा.

‘‘सोच में पड़ गए सूबेदार साहब? यही न कि कहीं पद्मिणी बाइसा की डोलियों की तरह इन में से भी सिपाही न निकल पड़ें? तो वह धोखे के जवाब का धोखा था. यह तो अपनी इच्छा से महाराणा आप पर मेहरबानी करना चाहते हैं. इस में भला धोखा क्यों? देख लीजिए, हमारी सचाई पर भरोसा हो तो ठीक है, वरना…निकल तो मैं जाऊंगा.’’

‘‘ठहरो, मुझे मंजूर है,’’ दिमाग पर मन हावी हो गया और इस आत्मविश्वासी युवक पर भरोसा करने का मन कर आया खानखाना का.

नियत दिन डोलियां आईं. आगेआगे घोड़े पर वही युवक सवार था. खानखाना के सिपाहियों के हाथ म्यान पर, लेकिन सब चुप. युवक उन सभी डोलियों के साथ अंदर दाखिल हुआ. पहले बांदियां निकलीं, फिर उन्होंने पालकियों के परदे हटाए और बेगमों और बच्चों को बाहर निकाला. सब से अंत में बड़ी बेगम बाहर आईं. उन्हें देख कर खानखाना की सांस में सांस आई जो अब तक जाने कहां अटकी थी. यह सोच कर कि क्या पता किस डोली में से राणा निकल कर टूट पडे़ं, किस में से कुंवर अमर सिंह छलांग लगा दें.

युवक बाहर जाने को मुड़ा. रहीम ने टोका, ‘‘रुको नौजवान, तुम ने मुझ पर इतना बड़ा एहसान किया है कि मैं उस का बदला तो नहीं चुका सकता. लेकिन फिर भी…’’ यह कहते हुए खानखाना ने अपने गले से वह नौलखा हार निकाला जो बादशाह ने उन्हें सुलतान मुजफ्फर को परास्त करने पर दिया था.

बेगम हड़बड़ाई, ‘‘हांहां, क्या गजब कर रहे हैं आप. जानते हैं ये कौन हैं?’ ये हैं राजकुंवर अमरसिंह. इन की खातिर कीजिए. ये इनाम लेंगे भला आप से?’’

रहीम को काटो तो खून नहीं. वह कुंवर को बस, देखते ही रह गए.

बड़ी बेगम ने हाथ पकड़ कर अमर को तख्त पर बिठाया और शौहर से बोलीं, ‘‘ये सच्चे राजपूत हैं. ये किसी की बहूबेटी की इज्जत से नहीं खेलते. उन्हें दरिंदों से बचाते हैं. मेरी जिंदगी का तो बेड़ा पार हो गया हुजूर. मैं ने इन के अब्बा हुजूर के भी दर्शन कर लिए.’’

फिर कुछ सोचते हुए बड़ी बेगम बोली, ‘‘उस…आप के अकबर बादशाह के दुश्मन ने कहा कि हमारी दुश्मनी बादशाह से है उस के मातहतों से नहीं.

‘‘जानते हैं, एक दिन इन के अब्बा हुजूर हमारे तंबू के बाहर खडे़ हो कर अंदर आने की इजाजत मांग रहे थे. मैं हैरान, परेशान, बदहवास सी भागी और उन के कदमों पर गिर कर गिड़गिड़ाने लगी. बेखयाली में मैं बेपरदा हो चुकी थी, लेकिन उस इनसान ने हमारे कंधे पर अपना दुशाला डाला और बोले, ‘‘मां, आप का स्थान चरणों में नहीं, सिर माथे पर है. अमर, इन सभी माताबहनों को सम्मान से खानखाना के पास पहुंचा आओ. रास्ते में कोई कष्ट न हो.’’

बड़ी बेगम उठीं, लोहबान जलाया और अमर सिंह की आरती उतारते हुए बोलीं, ‘‘बेटा, आज से तुम मेरे बेटे हो. मुझे अब फतह और शिकस्त से कोई वास्ता नहीं. जब तक जिंदा हूं तुम्हारी सलामती की दुआ मांगती रहूंगी. कोई भी तुम्हारा बाल बांका नहीं कर सकेगा, अकबर बादशाह हों या खुद मेरे ये शौहर.’’

खानखाना की आंखें भर आईं, गला रुंध गया. रोकतेरोकते भी आंसू ढुलक ही पडे़. इस क्षण वे न एक सूबेदार थे, न बादशाह के 5 हजारी मनसबदार. वह थे एक आम आदमी, एक कोमल हृदय कवि. उन्हें लगा कि प्रताप ने उन्हें ही नहीं, अकबर बादशाह को भी करारी शिकस्त दी है और यह नौजवान, जो उन की बेगम को नमस्कार कर के, खेमे से बाहर निकल रहा है, क्या कोई इनसान है? फिर खुद… उन के मुंह से निकल पड़ा,

‘‘तै रहीम मन आपनो, कीन्हों चारु चकोर,

निसि वासर लागो रहे, कृष्णचंद्र की ओर.’’

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