श्वेता एक सीधीसादी लड़की थी. कम बोलना, बेवजह किसी को फालतू मुंह न लगाना उस की आदत में ही शामिल था. दफ्तर के मालिक मनोहर साहब जब भी उसे बुलाते, वह नजरें झुकाए हाजिर हो जाती.

‘‘श्वेता…’’

‘‘जी सर.’’

‘‘तुम काम खत्म हो जाने पर फुरसत में मेरे पास आना.’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता दरवाजा खोलती और बाहर अपने केबिन की तरफ बढ़ जाती. उस ने कभी भी मनोहर साहब की तरफ ध्यान से देखा भी नहीं था कि उन की आंखों में उस के लिए कुछ है.

अगले महीने तरक्की होनी थी. पूरे दफ्तर में मार्च के इस महीने का सब को इंतजार रहता था.

मनोहर साहब अपने दफ्तर में बैठे श्वेता के बारे में ही सोच रहे थे कि शायद 2 साल के बाद वह उन से गुजारिश करेगी. पिछले साल भी उन्होंने उस की तरक्की नहीं की थी और न ही तनख्वाह बढ़ाई थी, जबकि उस का काम बढि़या था.

इस बार मनोहर साहब को उम्मीद थी कि श्वेता के कहने पर वे उस की तरक्की कर उसे अपने करीब लाएंगे, जिस से वे अपने मन की बात कह सकेंगे, पर श्वेता की तरफ से कोई संकेत न मिलने की वजह से वे काफी परेशान थे. आननफानन उन्होंने मेज पर रखी घंटी जोर से दबाई.

‘‘जी साहब,’’ कहता हुआ चपरासी विपिन हाजिर हो गया.

‘‘विपिन, देखना श्वेता क्या कर रही है? अगर वह खाली हो तो उसे मेरे पास भेज दो.’’

मनोहर साहब ने बोल तो दिया, पर वे समझ नहीं पा रहे थे कि उस से क्या कहेंगे, कैसे बात करेंगे. वे अपनी सोच में गुम थे कि तभी श्वेता भीतर आई.

मनोहर साहब उस के गदराए बदन को देखते हुए हड़बड़ा कर बोले, ‘‘अरे, बैठो, तुम खड़ी क्यों हो?’’

‘‘जी सर,’’ कहते हुए श्वेता कुरसी पर बैठ गई.

मनोहर साहब बोले, ‘‘देखो श्वेता, तुम काबिल और समझदार लड़की हो. तुम इतनी पढ़ाईलिखाई कर के टाइप राइटर पर उंगलियां घिसती रहो, यह मैं नहीं चाहता.

‘‘मैं तुम्हें अपनी सैक्रेटरी बनाना चाहता हूं.’’

‘‘क्या,’’ इस शब्द के साथ श्वेता का मुंह खुला का खुला रह गया. वह अपने भीतर इतनी खुशी महसूस कर रही थी कि मनोहर साहब के चेहरे पर उभरे भावों को देख नहीं पा रही थी.

‘‘ठीक है सर. कब से काम संभालना है?’’ यह पूछते हुए श्वेता के चेहरे पर बिखरी खुशी की लाली उस की खूबसूरती में निखार ला रही थी, जिस का मजा उस के मनोहर साहब भरपूर उठा रहे थे.

‘‘कल से ही तुम यह काम संभाल लो,’’ यह कहते हुए मनोहर साहब को ध्यान भी नहीं रहा कि अभी इस महीने में 5 दिन बाकी हैं, उस के बाद पहली तारीख आएगी.

मनोहर साहब के ‘कल से’ जवाब के बदले में श्वेता ने कहा, ‘‘ठीक है सर…’’ और जाने के लिए कुरसी छोड़ कर खड़ी हो गई, पर सर की आज्ञा का इंतजार था.

थोड़ी देर बाद मनोहर साहब बोल पड़े, ‘‘ठीक है, तुम जाओ.’’

श्वेता को मानो इसी बात का इंतजार था. वह अपनी इस खुशी को अपने परिवार में बांटना चाहती थी. वह अपना पर्स टटोलते हुए अपने केबिन में पहुंची और वहां सभी कागज वगैरह ठीक कर के घर के लिए चल पड़ी.

श्वेता अपने परिवार के पसंद की खाने की चीजें ले कर घर पहुंची. रास्ते में उस के जेहन में वे पल घूम रहे थे, जब 3 साल पहले उस के पिताजी की मौत हो गई थी. एक साल तक मां ही परिवार की गाड़ी चलाती रही थीं.

श्वेता ने बीए पास करते ही नौकरी शुरू कर दी थी, ताकि उस की दोनों छोटी बहनें पढ़ सकें. एक छोटा भाई सागर था, जो अभी तीसरी क्लास में था.

श्वेता के 12वीं के इम्तिहान के बाद ही सागर का जन्म हुआ था. तीनों बहनों का लाड़ला था सागर, पर पिता का प्यार उसे नहीं मिल सका था.

श्वेता को अपनी सोच में गुम हुए पता न चला कि घर आ चुका था.

‘‘रोको भैया, रोको, मुझे यहीं उतरना है,’’ कहते हुए श्वेता ने पैकेट संभाले हुए आटोरिकशा का पैसा चुकता किया और घर की सीढि़यों पर चढ़ते ही घंटी बजाई.

छोटी बहन संगीता ने दरवाजा खोला. सब से छोटी बहन सरोज भी उस के साथ थी. दीदी के हाथों में पैकेट देख कर दोनों बहनें हैरान थीं.

अभी वे कुछ कहतीं, उस से पहले श्वेता बोल पड़ी, ‘‘लो सरोज, आज हम सब बाहर का खाना खाएंगे.’’

इस के बाद वे तीनों भीतर आ कर मां के पास बैठ गईं.

मां भी श्वेता कोे देख रही थीं, तभी वह बोली, ‘‘मां, आज मैं बहुत खुश हूं. अब आप को चिंता नहीं करनी पड़ेगी. आप खुले हाथों से खर्च कर सकती हैं. अब मुझे 10,000 रुपए तनख्वाह मिला करेगी.’’

श्वेता की बातें सुन कर मां और ज्यादा हैरान हो गईं.

श्वेता ने आगे कहा, ‘‘मैं अपनी बहनों को इंजीनियर और डाक्टर बनाऊंगी. अब इन की पढ़ाई नहीं रुकेगी,’’ कहते हुए श्वेता के चेहरे पर ऐसे भाव आ गए जो पिता की मौत के बाद कालेज छोड़ते हुए आए थे.

श्वेता की तरक्की से पूरा दफ्तर हैरान था. काम्या तो इस बात से हैरान थी कि श्वेता ने कैसे मनोहर साहब से अपनी तरक्की करवा ली. अगर उसे पता होता कि ‘मनोहर साहब’ भी मैनेजर जैसे हैं, तो वह अपना ब्रह्मपाश मनोहर सर पर ही चलाती. वह फालतू ही मैनेजर के चक्कर में पड़ गई. उसे अपनेआप पर गुस्सा आ रहा था.

काम्या चालबाज लड़की थी. उस ने आते ही मैनेजर को अपने मायाजाल में फांस कर अपनी तरक्की करा ली थी, पर यह सब दफ्तर का कोई मुलाजिम नहीं जानता था. वह वहां सामान्य ही रहती थी, भले ही अपनी पूरी रात मैनेजर के साथ बिताती थी.

एक दिन काम्या ने श्वेता से कह दिया कि बहुत लंबा तीर मारा है तुम ने सीधीसादी बन कर, पर श्वेता उस का मतलब न समझ पाई.

4 महीने बीत चुके थे. एक दिन किसी समारोह में श्वेता भी मनोहर साहब के साथ गई. साहब बहुत खुश नजर आ रहे थे. दफ्तर का ही कार्यक्रम था. श्वेता से उन की खुशी छुपी नहीं रही. उस ने पूछ ही लिया, ‘‘सर, आज कोई खास बात है क्या?’’

‘‘हां श्वेता, तुम्हारे लिए खुशखबरी है,’’ कहते हुए वे मुसकराने लगे.

‘‘मेरे लिए क्या…’’ हैरान श्वेता देखती रह गई.

समारोह खत्म होने पर ‘तुम साथ चलना’ कहते हुए श्वेता का जवाब जाने बिना मनोहर साहब दूसरी तरफ चले गए. पर वह विचलित हो गई कि आखिर क्या बात होगी?

समारोह तकरीबन 4 बजे खत्म हुआ और साहब के साथ गाड़ी में चल पड़ी, वह राज जानने जो उस के साहब को खुश किए था और उसे भी कोई खुशी मिलने वाली थी. एक फ्लैट के सामने गाड़ी रुकी और साहब ताला खोलने लगे.

अंदर हाल में दीवान बिछा था, सोफे भी रखे थे. ऐसा लग रहा था कि यहां कोई रहता है. सभी चीजें साफसुथरी लग रही थीं.

‘‘बैठो,’’ मनोहर साहब ने कहा तो वह भी बैठ गई और साहब की तरफ देखने लगी.

‘‘देखो श्वेता, तुम बहुत ही समझदार लड़की हो. अब मैं जो भी कहने जा रहा हूं, उसे ध्यान से सुनना और समझना. अगर तुम्हें मेरी बातें या मैं बुरा लगूं तो तुम मेरा दफ्तर छोड़ कर आराम से जा सकती हो. अब मेरी बातें बड़े ही ध्यान से सुनो…’’

श्वेता मनोहर साहब की बातें समझ नहीं पा रही थी कि वे क्या कहना चाहते हैं और उस से क्या चाहते हैं. कानों में मनोहर साहब की आवाज पड़ी, ‘‘सुनो श्वेता, मैं तुम से पतिपत्नी का रिश्ता बनाना चाहता हूं. तुम मुझे अच्छी लगती हो. तुम में वे सारे गुण मौजूद हैं, जो एक पत्नी में होने चाहिए. मेरा एक 3 साल का बेटा है, उसे मां की जरूरत है. अगर तुम मेरी बात मान लोगी तो यहां जिंदगीभर राज करोगी. सोचसमझ कर मुझे अभी आधे घंटे में बताओ. तब तक मैं कुछ चायकौफी का इंतजाम करता हूं,’’ कहते हुए वे कमरे से बाहर जा चुके थे.

श्वेता क्या करे, इनकार की गुंजाइश बिलकुल नहीं थी. दूसरी नौकरी तलाशने तक घर तबाह हो जाएगा, हां कहती है तो बिना जन्म दिए मां का ओहदा मिल जाएगा. तरक्की के इतने सारे अनचाहे उपहारों को वह संभाल पाएगी. उस ने अपनेआप से सवाल किया.

‘‘लो, चाय ले लो,’’ कहते हुए वे उस के करीब बैठ चुके थे और उस की पीठ पर हाथ फेरने लगे. उस ने विरोध भी नहीं किया. उसे अपनी बहनों को डाक्टर और इंजीनियर जो बनाना था.

शरीर की हलचल पर काबू न रखते हुए वह मनोहर साहब की गोद में लुढ़क गई. आखिर उसे भी तो कुछ देना था साहब को, उन की इतनी मेहरबानियों की कीमत.

थोड़े देर में वे दोनों एकदूसरे में डूब गए. श्वेता को कुछ भी बुरा नहीं लग रहा था.

मनोहर साहब की पत्नी मर चुकी थी. वे किसी ऐसी लड़की की तलाश में थे, जो उस के बच्चे को अपना कर उसे प्यार दे सके. श्वेता में उसे ये गुण नजर आए, वरना उस की औकात ही क्या थी.

3 हफ्ते में दोनों की शादी हो गई. शादी में पूरा दफ्तर मौजूद था. सभी मनोहर साहब की तारीफ कर रहे थे कि चलो रिश्ता बनाया तो निभाया भी, वरना आजकल कौन ऐसा करता है.

काम्या भीतर ही भीतर हाथ मल रही थी और पछता रही थी. उस से रहा नहीं गया. श्वेता के कान में शब्दों की लडि़यां उंड़ेल दीं. ‘‘श्वेता, लंबा हाथ मारा है, नौकर से मालकिन बन बैठी.’’

श्वेता के चेहरे पर हलकी सी दर्द भरी मुसकान रेंग गई. वह खुद नहीं समझ पा रही थी कि ‘लंबा हाथ मारा है’ या ‘लुट गई है’.

‘‘मम्मी, गुड इवनिंग,’’ यह आवाज एक मासूम बच्चे सौरभ की थी, जो बहुत ही प्यारा था. मनोहर साहब उस का हाथ पकड़े खड़े थे. शायद मांबेटे का एकदूसरे से परिचय कराने के लिए, पर बिना कुछ पूछे श्वेता ने सौरभ को उठा कर अपने सीने से लगा लिया, क्योंकि उसे अपनी तरक्की से कोई गिला नहीं था. उसे तरक्की में मिले तोहफों से यह तोहफा अनमोल था.

लेखिका- डा. पुष्पा सिंह विसेन

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