मेरी कामवाली बाई सुन्दरी हफ्ते में एकाध दिन तो काम से गायब ही रहती थी, मगर एक अच्छी बात उसमें थी कि जिस दिन वह नहीं आती थी, उस दिन अपनी बेटी या बहू को काम करने के लिए भेज देती थी. मेरा परिवार मेरठ शहर में नया आया था. पति सिंचाई विभाग में अधिकारी थे. सरकारी नौकरी थी. दो-तीन साल में ट्रांस्फर होता ही रहता था. पहले तो वे अकेले ही आए थे, फिर जब रहने के लिए ठीक-ठाक घर किराए पर मिल गया, तो मुझे और दोनों बच्चों को भी ले आए. बच्चे अभी छोटे थे. माधवी दो साल की थी और राहुल पांचवे साल में चल रहा था. दोनों बच्चों के साथ नए घर में सामान एडजेस्ट करना मुश्किल टास्क था. फिर झाड़ू-पोछा, बर्तन-खाना मेरे अकेले के बस की बात न थी. इसलिए नौकरानी की जरूरत तो थी ही. कई दिनों की खोजबीन के बाद पीछे की मलिन बस्ती से यह सुन्दरी मिली थी.
सुन्दरी नाम की ही सुन्दरी थी, रंग ऐसा कि छांव में खड़ी हो तो नजर ही न आए. हां, सज-संवर कर खूब रहती थी. माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी, लाल चटख सिंदूर से पूरी भरी हुई मांग, दोनों हाथों में दर्जन-दर्जन भर चूड़ियां, गले में लंबा सा मंगलसूत्र, पांव में बिछिया, पायल पूरे सोलह सिंगार के साथ काम पर आती थी. हम तो चाह कर भी सुहाग का पूरा श्रृंगार नहीं कर पाते थे. बस बिन्दी भर लगा ली. यही बहुत था.
सुन्दरी स्वभाव की नरम थी और काम में तेज. ऐसी ही उसकी बहू और बेटी भी थीं. सुन्दरी छुट्टी करती तो उसकी बेटी सुकुमारी ही ज्यादा आती थी. सुकुमारी सांवले रंग की भरी-भरी सी लड़की थी. उम्र यही कोई सत्रह-अट्ठारह बरस की होगी. सुन्दरी जितनी सजधज के साथ आती थी, उसकी बेटी सुकुमारी उतनी ही साधारण वेशभूषा में रहती थी. हल्के रंग का सलवार-कुरता, सीने पर ठीक से ओढ़ा हुआ दुपट्टा, तेल लगे बालों की कस की गुंथी हुई लंबी चोटी और श्रृंगार के नाम पर आंखों में काजल तक नहीं. सुन्दरी जितनी बकर-बकर करती थी, उसके उलट उसकी बेटी बड़े शांत स्वभाव की थी. चुपचाप पूरे घर का काम चटपट निपटा देती थी.