एक हाथ में पर्स व टिफिन और दूसरे हाथ में गाड़ी की चाबी ले कर तेजी से मैं घर से बाहर निकल रही थी कि अचानक चाबी मेरे हाथ से छूट कर आंगन के एक तरफ जा गिरी.
‘ओफ्फो, एक तो वैसे ही आफिस के लिए देरी हो रही है दूसरे...’ कहतेकहते जैसे ही मैं चाबी उठाने के लिए झुकी तो मेरी नजर कूड़ेदान पर गई, जो ऊपर तक भरा पड़ा था. लगता है कूड़े वाला आज भी नहीं आया, यह सोच कर झल्लाती हुई मैं घर से बाहर निकल गई.
गाड़ी में बैठ कर मैं अपने आफिस की ओर चल पड़ी. जितनी तेजी से मैं सड़क पर दूरी तय कर रही थी, मेरा मन शायद उस से भी तेजी से छलांगें भर रहा था.
याद आया मुझे 15 साल पहले का वह समय जब मैं नईनई इस कालोनी में आई थी. सामान को ठीक जगह पर लगातेलगाते रात के 12 बज गए थे. थकान के मारे बदन टूट रहा था. यह सोच कर कि सुबह देर तक सोऊंगी और फिर फ्रैश हो कर सामान सैट करूंगी, मैं सो गई थी.
सुबहसुबह ही दरवाजे की घंटी बज उठी और उस गहरी नींद में मुझे वह घंटी चीत्कार करती लग रही थी.
‘अरे, इतनी सुबह कौन आ गया,’ झल्लाती हुई मैं बाहर आ गई.
‘‘अरे, बीबीजी, कूड़ा दे दो और कूड़े का डब्बा कल से रात को ही बाहर निकाल दिया करना. मेरी आदत बारबार घंटी बजाने की नहीं है.’’
वह यहां का कूड़ा उठाने वाला कर्मचारी था. धीरेधीरे मैं नई कालोनी में रम गई. पड़ोसियों से जानपहचान हो गई. बाजार, पोस्टआफिस, डाक्टर आदि हर चीज की जानकारी हो गई. नए दफ्तर में भी सब ठीक था. काम वाली बाई भी लगभग समय पर आ जाती थी. बस, अगर समस्या रही तो कूड़े की. रात को मैं कूड़ा बाहर निकालना भूल जाती थी और सुबह कूड़ा उठाने वाला अभद्र भाषा में चिल्लाता था.