लेखक- सुरेंद्र कुमार

सुधा मायके गई है और शाम को जब वह वापस आएगी तो बंटी के स्कूल को ले कर फिर से उस के साथ चिकचिक होगी, सुधीर को इस बात की पूरी आशंका थी.

सुधा के मायके वाले अमीर थे. करोड़ों में फैला उन का कारोबार था. सुधा के सारे भतीजेभतीजियां महंगे अंगरेजी स्कूलों में पढ़ते थे और फर्राटे से अंगरेजी बोलते थे. सुधा की परेशानी की असली वजह यही थी. बंटी के स्कूल को ले कर वह अपनी दोनों भाभियों के सामने जैसे छोटी और हीन पड़ जाती थी. दूसरे शब्दों में कहें तो, कौंपलैक्स की शिकार हो जाती थी. बंटी का किसी छोटे स्कूल में पढ़ना जैसे सुधा के लिए अपमान की बात थी.

अपना ज्यादा वक्त किटी पार्टियों और ब्यूटीपार्लर में बिताने वाली सुधा की अमीर और फैशनपरस्त भाभियां सबकुछ जानते हुए बंटी के स्कूल को ले कर जानबूझ कर सवाल करतीं और अपनेपन व हमदर्दी की आड़ में बंटी के स्कूल को तुरंत बदल देने की सलाह भी देती थीं. सुधा की दुखती रग को दबाने में शायद उन्हें मजा आता था. इस मामले में सुधा को नादान ही कहा जा सकता था. भाभियों की असली मंशा को वह समझ नहीं पाती थी.

मायके से आ कर बंटी के स्कूल को ले कर हमेशा बिफर जाती थी सुधा और इस बार भी ऐसा ही होने वाला था. जैसी सुधीर को आशंका थी, वैसा हुआ भी.

इस बार सुधा के बिफरने का अंदाज पहले से कहीं अधिक उग्र था. अब की बार बंटी के मामले में जैसे वह कुछ ठान कर ही आई थी.

आते ही उस ने ऐलान कर दिया, ‘‘बस, बहुत हो चुका, मैं कल ही बंटी को किसी अच्छे से अंगरेजी स्कूल में दाखिला दिलवा दूंगी. इस निकम्मे से देसी स्कूल में वह कुछ नहीं सीख सकेगा, सिवा गंदी गालियों के.’’

‘‘लेकिन मैं ने तो कभी उस के मुंह से गंदी गाली निकलती हुई नहीं सुनी. हां, सुबह स्कूल जाते हुए वह हम दोनों के पांवों को जरूर छूता है. यह एक अच्छी चीज है और ऐसा करना बंटी ने जरूर उस स्कूल में ही सीखा होगा जिस को अकसर तुम निकम्मा और देसी कहती हो,’’ मुसकराते हुए सुधीर ने कहा.

‘‘मैं तुम्हारे साथ किसी बेकार की बहस में नहीं पड़ना चाहती. कल से बंटी किसी दूसरे अंगरेजी स्कूल में ही जाएगा. तुम नहीं जानते बंटी के कारण ही मुझ को कितने कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं. भैया के बच्चों की तरह बंटी में आत्मविश्वास ही नहीं है. हर समय मेरी गोद में ही दुबके रहना चाहता है. कहीं भी नहीं ठहर पाता बंटी उन के सामने.’’

‘‘मगर इन सारी बातों का इलाज स्कूल बदलने से ही हो जाएगा क्या?’’ सुधीर ने पूछा.

‘‘जरूर होगा. भैया के बच्चों में आत्मविश्वास और हाजिरजवाबी केवल उन के स्कूल की वजह से ही है. वे किसी भी सवाल पर न तो बंटी की तरह झेंपते हैं और न ही घबराते हैं. उन की मौजूदगी में तो बंटी के मुंह से बात तक नहीं निकलती. नीरू भाभी तो कुछ नहीं कहतीं, लेकिन आरती भाभी की आदत को तो तुम जानते ही हो, वे कोई न कोई ऐसी बात कहने से बाज नहीं आतीं, जो तनबदन में आग लगा दे. एक ही तो बेटा है हमारा. फिर हमारे पास कमी किस चीज की है? हम भी तो बंटी को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ा सकते हैं?’’

‘‘बंटी अपनी पढ़ाई में तो ठीक ही है सिवा इस के कि वह फर्राटे से अंगरेजी नहीं बोल सकता. फिर वह अभी काफी छोटा है. इस समय उस का स्कूल बदलना ठीक नहीं होगा,’’ सुधीर ने उस को समझाना चाहा.

‘‘नहीं, इस बार मैं तुम्हारी एक भी नहीं सुनूंगी. कल से बंटी किसी दूसरे स्कूल में ही जाएगा,’’ सुधा का स्वर निर्णायक था.

सुधा ने जैसा कहा वैसा किया भी. स्कूल का रिकशा आया तो उस ने बंटी को स्कूल नहीं भेजा.

इस के बाद सुधा ने मायके फोन किया और अपनी भाभियों से उन स्कूलों की लिस्ट मांगी जिन में से किसी एक में बंटी का दाखिला करवाने के बाद वह अपनी हीनभावना से मुक्त हो सकती थी.

दोनों भाभियों ने कई महंगे अंगरेजी स्कूलों के नाम सुधा को सुझाए.

भाभियों द्वारा सुझाए गए स्कूलों में से किसी एक को चुनने के लिए जब सुधा ने सुधीर से सलाह मांगी तो उस ने कहा, ‘‘अब इस के बारे में भी तुम अपनी किसी भाभी से ही पूछ लो तो बेहतर रहेगा, क्योंकि मुझ को इन सारे स्कूलों के बारे में कोई ज्यादा जानकारी नहीं.’’

इस पर सुधा का मुंह बन गया. वह बोली, ‘‘तुम से तो बात करना ही बेकार है. मेरे मायके वालों की किसी भी बात से तो तुम्हें वैसे ही चिढ़ है.’’

पत्नी की इस पुरानी शिकायत पर सुधीर के पास मुसकराने के अलावा कोई रास्ता नहीं था.

हर बात में मायके का राग अलापना कुछ औरतों के स्वभाव में शामिल होता है और सुधा उन्हीं में से एक थी.

सुधीर के दफ्तर जाने से पहले ही सुधा बंटी को ले कर उसे अंगरेजी स्कूल में दाखिला करवाने के अभियान पर निकल पड़ी.

सुधीर ने उस से पैसों के बारे में पूछा तो उस ने कहा, ‘‘मेरे पास हैं. कल रमेश भैया ने भी काफी रुपए दे दिए थे. मैं ने लेने से इनकार भी किया था मगर वे

नहीं माने.’’

‘‘हां, बंटी के अंगरेजी स्कूल में दाखिले का सवाल था, तुम भी इनकार कैसे करतीं,’’ सुधीर ने व्यंग्यपूर्वक कहा.

‘‘मैं जानती थी, तुम कोई ताना मारने से बाज नहीं आओगे,’’ मुंह बनाती हुई सुधा ने कहा और बंटी को ले कर बाहर निकल गई.

शाम को सुधीर जब दफ्तर से वापस आया तो सुधा के चेहरे पर रौनक थी.

उस के चेहरे की रौनक से स्पष्ट था कि बंटी का ऐडमिशन किसी अंगरेजी स्कूल में हो गया था. जैसे कोई बड़ा किला फतह कर लिया हो, कुछ ऐसी ही हालत थी सुधा की.

सुधीर के कुछ पूछने से पहले ही वह खुद बंटी के ऐडमिशन में पेश आई मुश्किलों की सारी कहानी उसे बताने लगी. कहानी के अंत में बंटी को ऐडमिशन का सारा श्रेय अपने भाई को देना नहीं भूली, सुधा.

‘‘रमेश भैया की सिफारिश नहीं होती तो बंटी को बिना डोनेशन के कभी भी ऐडमिशन नहीं मिलता.’’

‘‘चलो, जैसे भी है बंटी को अंगरेजी स्कूल में ऐडमिशन मिल गया. अब कम से कम उस के कारण अपनी भाभियों के सामने तुम्हारी नाक नीची नहीं होगी,’’ चुटकी लेते हुए सुधीर ने कहा. सुधा का मुंह बन गया.

अपनी मम्मी और पापा की बातों से एकदम उदासीन बंटी अपने नए वाले स्कूल की किताबों को उलटपलट कर देख रहा था. वह परेशान सा नजर आ रहा था.

अगर स्कूल महंगा और बड़ा था तो उस की किताबें भी वैसी ही महंगी और कठिन थीं. बंटी इसलिए परेशान था क्योंकि नए स्कूल की किताबों में से उस के पल्ले कुछ भी नहीं पड़ रहा था. नए स्कूल की किताबों में जो कुछ था वह पहले वाले स्कूल की किताबों में नहीं था.

शिक्षा के क्षेत्र में जो अजीब चलन चल पड़ा उस का शिकार बंटी जैसे मासूम बच्चे ही बनते हैं.

किसी स्कूल के स्टैंडर्ड का मानदंड इन दिनों भारीभरकम डोनेशन, ऊंची फीस और कठिन सिलेबस बन चुका. जितनी बड़ीबड़ी और कठिन शब्दावली की किताबें उतना ही नामी स्कूल.

नए स्कूल में से जो किताबें बंटी को मिलीं वे खूबसूरत और आकर्षक थीं. चिकने पृष्ठों वाली किताबों के अंदर जानवरों, पक्षियों, वाहनों, नदी और पहाड़ों के सुंदर व रंगबिरंगे चित्र थे. ये चित्र बंटी को खूब भाए थे. लेकिन किताबों में मौजूद अंगरेजी की पोएम्स समझना बंटी के लिए मुश्किल था. कमोवेश शब्दों के अर्थ भी बदल गए थे. जैसे पहले वाले स्कूल की किताबों में बंटी ‘ए फौर एप्पल’ पढ़ता आ रहा था, मगर नए स्कूल की किताबों में ‘ए फौर एलिगेटर’ बन गया था. ‘सी फौर कैट’, नए स्कूल में ‘सी फौर क्राउन’ हो गया था.

स्कूल बदलते समय बंटी के मन की किसी ने नहीं जानी थी. उस की मरजी किसी ने नहीं पूछी थी. यों?भी सोसाइटी में बड़ों की नाक के मामले में मासूमों की भावनाएं कोई माने नहीं रखतीं.

यह साफ था कि नए स्कूल में अपर केजी में पढ़ने वाले बंटी की सारी पढ़ाई भी नए सिरे से ही शुरू होने वाली थी.

उधर बंटी का स्कूल बदल कर सुधा ने बैठेबिठाए अपने लिए परेशानी मोल ले ली थी.

बंटी का पहला स्कूल घर के काफी पास था, उस पर उस को स्कूल ले जाने के लिए रिकशा घर के दरवाजे तक आता था. बंटी को स्कूल भेजने के लिए सुधा काफी आराम से उठती थी. अगर बंटी ने नाश्ता न किया हो और स्कूल की रिकशा आ जाए तो सुधा के कहने पर रिकशा वाला दोचार मिनट रुक भी जाता था.

लेकिन स्कूल को बदलने से सारी बात ही दूसरी हो गई थी. बंटी के नए स्कूल की बस चौराहे तक आती थी जोकि घर से बहुत दूर नहीं तो ज्यादा पास भी नहीं था बंटी को साथ ले और उस का भारीभरकम स्कूल बैग उठा कर पैदल चौराहे तक पहुंचने में सुधा को कम से कम 15-20 मिनट तो लग ही जाते थे. नए स्कूल की बस किसी के लिए 1 मिनट भी नहीं रुकती थी इसलिए उस के आने के समय से काफी पहले ही चौराहे पर जा कर खड़े होना पड़ता था.

यही हालत बंटी के स्कूल से आने के समय होती थी. कड़कती धूप में बस के आने के समय से 10-15 मिनट पहले ही सुधा को चौराहे पर खड़े हो उस की राह देखनी पड़ती थी.

बंटी को स्कूल की बस में चढ़ाने और उतारने के चक्कर में सुधा हांफ जाती थी. कभीकभी खीज भी उठती थी. लेकिन अपनी खीज को वह जाहिर नहीं कर पाती थी.

करती भी कैसे, सारी मुसीबत उस की अपनी ही तो मोल ली हुई थी. केवल एक ही खयाल उस को काफी राहत और संतोष देने वाला था और वह था कि बंटी के कारण अब कम से कम अपनी नखरैल भाभियों के सामने उस की स्थिति कमजोर नहीं पड़ेगी.

एक और समस्या भी बंटी के स्कूल बदलने से सुधा के सामने आ खड़ी हुई थी. बंटी के नए स्कूल की किताबें सुधा के पल्ले नहीं पड़ रही थीं. ऐसे में उस को होमवर्क करवाना सुधा के बस की बात नहीं थी. बंटी के लिए ट्यूशन का इंतजाम करना भी अब जरूरी हो गया था.

इधर बंटी के दिल और दिमाग की हालत क्या थी, किसी को भी इसे जानने की फुरसत न थी.

सुबह सुधा गहरी नींद से उसे जगा देती और फिर जल्दीजल्दी उस को स्कूल के लिए तैयार करती.

बंटी को तैयार करते वक्त सुधा का ध्यान उस की तरफ कम और दीवार पर लटक रही घड़ी की तरफ ज्यादा रहता. उसे डर रहता कि कहीं स्कूल की बस निकल न जाए इसलिए वह बंटी को लगभग घसीटते हुए चौराहे तक ले जाती.

बस में स्कूल जाना बंटी के लिए नया और मजेदार अनुभव था. नए स्कूल की साफसुथरी और शानदार इमारत में प्रवेश भी बंटी के लिए रोमांचपूर्ण अनुभव था. बाकी चीजों के मामले में पहले वाले स्कूल से नया स्कूल बंटी के लिए कुछ अच्छा और कुछ बुरा था.

नए स्कूल में आ कर शुरूशुरू में तो बंटी को ऐसा लगा था जैसे वह किसी एकदम बेगानी दुनिया में आ गया हो. वह बहुत घबराया हुआ था. अपनेआप में ही सिमटा चला जा रहा था. क्लास में बाकी बच्चे उस की इस हालत पर हंसते थे.

नए स्कूल की मैम बंटी को बहुत पसंद आईं. उन का बोलचाल का ढंग भी अच्छा था. पहले वाले स्कूल की मैडम की तरह पढ़ाते समय वे तेज आवाज में बच्चों पर चिल्लाती नहीं थीं. एक बच्चे ने जब अपना सबक ठीक से नहीं सुनाया तो मैम ने बस उस के कान को हलके से खींच दिया था. पहले वाले स्कूल की मैडम तो ऐसे बच्चों को फौरन अपनी टेबल के पास मुर्गा बना देतीं या उन की पीठ अथवा हाथों पर स्केल से जोरजोर से मारती थीं.

बड़ी अच्छी चीजें देखी बंटी ने नए स्कूल में, पर कुछ चीजें बहुत बुरी भी लगीं उस को.

नए स्कूल में बच्चे बड़ी गंदीगंदी हरकतें करते थे. वे गालियां भी निकालते थे, जो अभी बंटी की समझ में नहीं आती थीं, क्योंकि उन के द्वारा दी जाने वाली अधिकांश गालियां अंगरेजी में होती थीं. अपनी उम्र से कहीं बड़ीबड़ी बातें करते थे नए स्कूल के बच्चे.

इधर बंटी को महंगे और बढि़या स्कूल में दाखिल करवाने के बाद गर्व से इतरा रही सुधा को उस दिन फिर अपमान का सामना करना पड़ा जब उस के घर बच्चों समेत आई भाभियों की मौजूदगी में बंटी और उन के बच्चों में झगड़ा हो गया और इस झगड़े में बंटी के मुख से ठेठ पंजाबी जबान में मांबहन वाली गाली निकल गई. गुस्से से सुधा ने बंटी के गाल पर एक जोर का चांटा रसीद कर दिया.

सुधा के लिए शर्म की बात थी कि बढि़या अंगरेजी स्कूल में जाने के बाद भी बंटी की जबान से घटिया गाली निकली थी.

ऐसे मौके पर भी बड़ी भाभी आरती कटाक्ष करने से नहीं चूकी थीं, ‘‘जाने दो दीदी, इतना गुस्सा क्यों करती हो? शुरू से ही इस को किसी अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता तो यह ऐसी गालियां नहीं सीखता. नए स्कूल के माहौल का असर होने में थोड़ा समय तो लगता ही है. इसलिए बुरी आदतें भी जाने में कुछ वक्त तो लगेगा ही. आखिर कौआ एकदम से हंस की चाल तो नहीं चल पड़ेगा.’’

सुधा कुछ बोली नहीं, मगर उस का चेहरा अपमान से लाल हो गया.

यह देख दोनों भाभियां कुटिलता से मुसकरा दीं. सुधा को नीचा दिखलाने का कोई मौका वे कभी नहीं छोड़ती थीं.

शाम को दोनों भाभियां बच्चों को ले कर चली गईं, मगर सुधा के मन में अपमान की कड़वाहट छोड़ गईं.

तिलमिलाई सुधा अपने दिल की सारी भड़ास एक बार फिर से बंटी पर निकालना चाहती थी मगर सुधीर ने उस को ऐसा करने से रोक दिया.

बंटी की वजह से सुधा को एक बार फिर नीचा देखना पड़ा था. भाभी की बातें नश्तर बन कर उसे काटे जा रही थीं.

सुधीर उस को शांत करने की लगातार कोशिश करता रहा. सहमा हुआ बंटी रात को भूखा ही सो गया.

बंटी के भूखे सो जाने से सुधा के अंदर की ममता जागी. शायद अपने व्यवहार के लिए उस को पश्चात्ताप भी हुआ था. सुधा बंटी को जगा कर कुछ खिलाना चाहती थी मगर सुधीर ने उसे मना कर दिया.

नए अंगरेजी स्कूल का असर 4-5 महीने में बंटी में साफ नजर आने लगा था. रोजमर्रा की छोटीमोटी बातों के लिए बंटी अंगरेजी के शब्दों का इस्तेमाल करने लगा था. सुबह उठते ही ‘गुडमौर्निंग पापा, गुडमौर्निंग ममा’ और रात को सोते वक्त ‘गुडनाइट पापा, गुडनाइट ममा’ कहना बंटी की दिनचर्या का हिस्सा बन गया था. अंडे को अब वह ‘एग’ कहता था और सेब को ‘एप्पल’.

यह देख सुधा फूली नहीं समाती. उस के दिमाग में न जाने कैसे यह बात बैठ गई कि अंगरेजी में बात करने वाले बच्चों के कारण ही सोसाइटी में मांबाप की शान बनती है.

बदलाव तो बंटी में आ रहा था मगर यह केवल अंगरेजी के चंद शब्द बोलने तक ही सीमित नहीं था. बंटी के व्यवहार में आक्रामकता और उद्दंडता भी आ रही थी. किसी बात के लिए टोके जाना बंटी को अच्छा नहीं लगता था.

सुधा उस की हर चीज केवल इसलिए बरदाश्त कर रही थी क्योंकि वह अंगरेजी स्कूल के रंग में रंग रहा था. उस की जबान से अब कोई हलके किस्म की पंजाबी गाली नहीं निकलती थी. लेकिन इस का मतलब यह नहीं था कि बंटी गाली देना ही भूल गया था. यह बात अलग थी कि अब उस की दी हुई गाली सुधा की समझ में नहीं आती थी, क्योंकि अब वह अंगरेजी में ऐसी गालियां निकालना सीख गया जिस का मतलब समझना उस के लिए मुश्किल था.

गालियों का मतलब बंटी भी शायद नहीं समझता था, लेकिन उस को इतना जरूर मालूम होता था कि जो उस के मुख से निकल रहा है वह गाली है.

एक दिन जब रिमोट हाथ में ले कर बंटी टैलीविजन के चैनल से छेड़छाड़ कर रहा था तो सुधा ने उसे टोका और कहा, ‘‘बहुत हो गया बंटी, अब टैलीविजन बंद करो और अपना होमवर्क करो,’’ लेकिन बंटी ने उस की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और कार्टून चैनल देखता रहा.

सुधा ने अपनी बात दोहराई, लेकिन बंटी पर कोई असर नहीं हुआ.

दूसरी बार भी जब बंटी ने बात को अनसुना किया तो सुधा को गुस्सा आ गया. उस ने बंटी के हाथ से रिमोट छीना और चिल्ला कर बोली, ‘‘मैं क्या कह रही हूं, सुनाई नहीं दे रहा क्या?’’

सुधा का रिमोट छीनना और चिल्लाना बंटी को रास नहीं आया. उस के नथुने फूलने लगे और वह गुस्से से सुधा को घूरते हुए जोर से चीखा, ‘‘शटअप, यू ब्लडी बास्टर्ड.’’

अंगरेजी में दी गई बंटी की गाली के मतलब सुधा नहीं समझी थी इसलिए उस का तमाचा बंटी के गाल पर नहीं पड़ा. वह असहाय और बेबस नजरों से सुधीर को देखने लगी.

पत्नी की हालत पर गुस्से की बजाय सुधीर को तरस आता. वह पत्नी को यह नहीं बताना चाहता था कि बंटी की अंगरेजी में दी गई गाली पंजाबी में दी गई उस गाली से बेहतर नहीं थी जिस की वजह से उस ने एक दिन बंटी के गाल पर तमाचा मारा था.

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