लेखक- मनमोहन सरल
Hindi Kahaniyan : उस दिन अपने एक डाक्टर मित्र के यहां बैठा था. बीमारियों का मौसम चल रहा था, इसलिए मरीजों की भीड़ कुछ ज्यादा ही थी. उन में कई बुरकानशीन खातून भी थीं जो ज्यादा उम्र की थीं, वे आपस में बातें कर रही थीं. कुछ बीच की उम्र वाली भी रही होंगी, जो ज्यादातर चुप ही थीं लेकिन उन में से किसी के साथ एक कमसिन जैसी भी थी, जिस के कमसिन होने का अंदाजा उस के चुलबुलेपन से लगता था, क्योंकि वह कभी एक जगह नहीं बैठती थी. साफ था कि उस को बुरका मजबूरी में पहनाया गया था.
आखिर आजिज आ कर उस ने अपना नकाब उलट ही दिया. उफ, वह तो बला की खूबसूरत निकली. काले बुरके से निकले उस के गोरेगुदाज हाथ तो पहले ही दिखाई दे चुके थे और अब उस का नजाकत से तराशा हुआ चेहरा भी सामने था. एकबारगी मेरे मन में यह खयाल कौंधा कि खूबसूरत नाजनीनों को बुरके में अपना हुस्न छिपाने का हक किस ने दिया? क्या यह हम मर्दों पर जुल्म नहीं है?
उस पर से निगाह हटती ही न थी, पर लगातार उधर देखते रहना, बेअदबी होती. इसलिए मैं रिसाले के पन्ने पलटने लगा, जो शायद कई साल पुराना था.
गए वक्त की एक अदाकारा की एक थोड़ी शोख अदा वाली तसवीर पर नजर गड़ाए था कि अचानक मेरे बगल वाली सीट पर एक बुरकानशीन आ कर बैठ गई. मैं ने उधर गरदन घुमाई तो उस ने अपना नकाब उठा दिया.
‘‘अरे, तुम?’’ मुंह से बेसाख्ता निकला.
यह नसीम थी, जो 4 साल पहले मेरी स्टूडैंट रह चुकी थी. वह इंस्टिट्यूट में भी दाखिल बुरके में ही होती थी, पर बिल्डिंग का गेट पार करतेकरते बुरका उतर जाता था और क्लास में पहुंचने तक वह तह कर के बैग के हवाले भी हो चुका होता था.
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