अपने भाई की बात सुन कर सरला बहुत नाराज हुई तो भाई ने भी अपना गरल उगल कर उन के जले हुए तनमन पर खूब नमक रगड़ा. ‘‘हां, तो सरला, तुम्हारी बहू कितनी भी सुंदर और काबिल क्यों न हो, उस पर विधवा होने का ठप्पा तो लग ही चुका है. वह तो मैं ही था कि इस का उद्धार करने चला था वरना इस की औकात क्या है. सालभर के अंदर ही अपने खसम को खा गई. वह तो यहां है, इसलिए बच गई वरना हमारे यहां तो ऐसी डायन को पहाड़ से ढकेल देते हैं. मैं ने तो इस का भला चाहा, पर तुम्हें समझ में आए तब न. जवानी की गरमी जब जागेगी तो बाहर मुंह मारेगी, इस से तो अच्छा है कि घर की ही भोग्या रहे.’’
सरला के भाई की असभ्यता पर लालचंद चीख उठे, ‘‘अरे, कोई है जो इस जानवर को मेरे घर से निकाले. इस की इतनी हिम्मत कि मेरी बहू के बारे में ऐसी ऊलजलूल बातें करे. सरला, आप ने मुझ से पूछे बिना इसे कैसे बुला लिया. आप के चचेरे भाइयों के परिवार की काली करतूतों से पहाड़ का चप्पाचप्पा वाकिफ है.’’ लालचंद क्रोध के मारे कांप रहे थे. ‘‘न, न, बहनोई साहब, मुझे निकलवाने की जरूरत नहीं है. मैं खुद चला जाऊंगा, पर एक बात याद रखिएगा कि आज आप ने मेरी जो बेइज्जती की है उसे सूद समेत वसूल करूंगा. तुम जिस बहू के रूपगुण पर रिझे हुए हो, सरेआम उसे पहाड़ की भोग्या न बना दिया तो मैं भी ब्राह्मण नहीं.’’ यह कहता हुआ सरला का बदमिजाज भाई निकल गया पर अपनी गर्जना से उन दोनों को दहलाते हुए भयभीत कर गया. उस के जाने के बाद कई दिनों तक घर का वातावरण अशांत रहा.