विकास की दर क्या होती है, यह बात सुलभा की समझ से बाहर थी. वह मां से पूछ रही थी कि मां, विकास की दर बढ़ने से महंगाई क्यों बढ़ती है? मां, बेरोजगारी कम क्यों नहीं होती? मां यानी शालिनी चुप थी. उस का सिरदर्द यही था कि उस ने जब एम.ए. अर्थशास्त्र में किया था, तब इतनी चर्चा नहीं होती थी. बस किताबें पढ़ीं, परीक्षा दी और पास हो गए. बीएड किया और अध्यापक बन गए. वहां इस विकास दर का क्या काम? वह तो जब छठा वेतनमान मिला, तब पता लगा सचमुच विकास आ गया है. घर में 2 नए कमरे भी बनवा लिए. किराया भी आने लगा. पति सुभाष कहा करते थे कि एक फोरव्हीलर लेने का इरादा है, न जाने कब ले पाएंगे. पर दोनों पतिपत्नी को एरियर मिला तो कुछ बैंक से लोन ले लिया और कार ले आए. सचमुच विकास हो गया. पर शालिनी का मन अशांत रहता है, वह अपनेआप को माफ नहीं कर पाती है.

जब अकेली होती है, तब कुछ कांटा सा गड़ जाता है. सुभाष, धीरज की पढ़ाई और उस पर हो रहे कोचिंग के खर्च को देख कर कुछ कुढ़ से जाते हैं, ‘‘अरे, सुलभा की पढ़ाई पर तो इतना खर्च नहीं आया, पर इसे तो मुझे हर विषय की कोचिंग दिलानी पड़ रही है और फिर भी रिपोर्टकार्ड अच्छा नहीं है.’’

‘‘हां, पर इसे बीच में छोड़ भी तो नहीं सकते.’’

सुलभा पहले ही प्रयास में आईआईटी में आ गई थी. बस मां ने एक बार जी कड़ा कर के कंसल क्लासेज में दाखिला करा दिया था. पर धीरज को जब वह ले कर गई तो यही सुना, ‘‘क्या यह सुलभा का ही भाई है?’’

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