चारपाई पर लेटी हुई बुधिया साफसाफ देख रही थी कि सूरज अब ऊंघने लगा था और दिन की लालिमा मानो रात की कालिमा में तेजी से समाती जा रही थी.
देखते ही देखते अंधेरा घिरने लगा था... बुधिया के आसपास और उस के अंदर भी. लगा जैसे वह कालिमा उस की जिंदगी का एक हिस्सा बन गई है...
एक ऐसा हिस्सा, जिस से चाह कर भी वह अलग नहीं हो सकती. मन किसी व्याकुल पक्षी की तरह तड़प रहा था. अंदर की घुटन और चुभन ने बुधिया को हिला कर रख दिया. समय के क्रूर पंजों में फंसीउलझी बुधिया का मन हाहाकार कर उठा है.
तभी ‘ठक’ की आवाज ने बुधिया को चौंका दिया. उस के तनमन में एक सिहरन सी दौड़ गई. पीछे मुड़ कर देखा तो दीवार का पलस्तर टूट कर नीचे बिखरा पड़ा था. मां की तसवीर भी खूंटी के साथ ही गिरी पड़ी थी जो मलबे के ढेर में दबे किसी निरीह इनसान की तरह ही लग रही थी.
बुधिया को पुराने दिन याद हो आए, जब वह मां की आंखों में वही निरीहता देखा करती थी.
शाम को बापू जब दारू के नशे में धुत्त घर पहुंचता था तो मां की छोटी सी गलती पर भी बरस पड़ता था और पीटतेपीटते बेदम कर देता था. एक बार जवान होती बुधिया के सामने उस के जालिम बाप ने उस की मां को ऐसा पीटा था कि वह घंटों बेहोश पड़ी रही थी. बुधिया डरीसहमी सी एक कोने में खड़ी रही थी. उस का मन भीतर ही भीतर कराह उठा था.
बुधिया को याद है, उस दिन उस की मां खेत पर गई हुई थी... धान की कटाई में. तभी ‘धड़ाक’ की आवाज के साथ दरवाजा खुला था और उस का दारूखोर बाप अंदर दाखिल हुआ था. आते ही उस ने अपनी सिंदूरी आंखें बुधिया के ऊपर ऐसे गड़ा दी थीं मानो वह उस की बेटी नहीं महज एक देह हो.