‘‘किसीने क्या खूब कहा है कि जो रिश्ते बनने होते हैं बन ही जाते हैं, कुदरत के छिपे हुए आशयों को कौन जान सका है? इस का शाहकार और कारोबार ऐसा है कि अनजानों को कैसे भी और कहीं भी मिला सकता है.’’

वे दोनों भी तकरीबन 1 महीने से एकदूसरे को जानने लगे थे. रोज शाम को अपनेअपने घर से टहलने निकलते और पार्क में बतियाते.

आज भी दोनों ने एकदूसरे को देखा और मुसकरा कर अभिवादन किया.

‘‘तो सुबह से ही सब सही रहा आज,’’ रमा ने पूछ लिया, तो रमनजी ने हां में जवाब दिया.

और फिर दोनों में सिलसिलेवार मीठीमीठी गपशप भी शुरू हो गई.

रमा उन से 5 साल छोटी थी, मगर उन की बातें गौर से सुनती और अपना विचार व्यक्त करती.

रमनजी ने उस को बताया था कि वे

परिवार से बहुत ही नाखुश रहने लगे हैं, क्योंकि सब को अपनीअपनी ही सूझती है. सब की अपनी मनपसंद दुनिया और अपने मनपसंद अंदाज हैं.

रमनजी का स्वभाव ही ऐसा था कि जब

भी गपशप करते तो अचानक ही

पोंगा पंडित जैसी बातें करने लगते. वे कहते, ‘‘रमाजी पता है, तो वह तुरंत कहती ‘जी, नहीं… नहीं’ पता है तब भी वे बगैर हंसे अपनी रौ में बोलते रहते, ‘‘इस दुनिया में 2 ही पुण्य फल हैं- एक, तुम जो चाहो वह न मिले और दूसरा, तुम जो चाहो वह मिल जाए.’’

यह सुन कर रमाजी खूब हंसने लगतीं, तो रमनजी अपनी बात को और स्पष्ट करते हुए कहते, ‘‘प्रभु की शरण में सब समाधान मिल जाता है. परमात्मा में रमा हुआ मन और तीर्थ में दानपुण्य करने वाले को सभी तरह की शंका का समाधान मिल जाता है.’’

‘‘और हां रमाजी सुनिए, यह जो जीवन है वो भले ही कितना भी लंबा हो, नास्तिक बन कर और उस परमात्मा को भूल कर छोटा भी किया जा सकता है.’’

यह सब सुन कर रमाजी अपनी हंसी दबा कर कहतीं, ‘‘अच्छाजी, तो आप का आश्रम कहां है? जरा दीक्षा लेनी थी.’’

यह सुन कर रमनजी काफी गंभीर और उदास हो जाते, तो वे मन बदलने को कुछ लतीफे सुनाने लगतीं. वे उन से कहतीं, ‘‘गुरुजी, जो तुम को हो पसंद वही बात करेंगे, तुम दिन को अगर रात कहो तो रात कहेंगे…’’

उक्त गीत में नायक नायिका से क्या कहना चाहता है, संक्षेप में भावार्थ बताओ रमनजी…

रमनजी सवाल सुन कर बिलकुल सकपका ही जाते. वे बहुत सोचते, पर उन से तो उत्तर देते ही नहीं बनता था.

रमाजी कुछ पल बाद खुद ही कह देतीं, ‘‘रमनजी, इस गाने में नायक नायिका से कह

रहा है कि ठीक है, तुम से माथा फोड़ी कौन करे?’’

उस के बाद दोनों ही जोरदार ठहाके लगाते.

अकसर रमनजी उपदेशक हो जाते. वे कहते कि मेरे मन में ईश्वर प्रेम

भरा है और मैं तुम को भी यही सलाह इसलिए नहीं दे रहा कि मैं बहुत समझदार हूं, बल्कि मैं ने गलतियां तुम से ज्यादा की हैं. और इस राह में जा कर ही मुझे सुकून मिला है इसलिए.

तो रमाजी भी किसी वामपंथी की मनिंद बोल उठतीं, ‘‘रमनजी, 3 बातों पर निर्भर करता

है हमारा भरोसा. हमारा अपना सीमित विवेक, हम पर सामाजिक दबाव और आत्मनियंत्रण

का अभाव.’’

‘‘अब इस में मैं ने अपने भरोसे की चीज तो पा ली है और खुश हूं कि हां, वह कौन सी चीज ढूंढ़ी,’’ यह तो समझने वालों ने समझ ही लिया होगा, मगर रमनजी तब भी रमाजी के मन को नहीं समझ पाते थे.

रमनजी की भारीभरकम बातें सुन कर पहलेपहल रमा को ऐसा लगता था कि वे शायद बहुत बड़े कुनबे का बोझ ढो रहे होंगे. बहुत सहा होगा और इसीलिए अब उन को उदासी ने अपनी गिरफ्त में ले लिया है.

फिर एक दिन रमा ने जरा खुल कर ही जानना चाहा कि आखिर ये माजरा क्या है. रमा उन से बोलीं कि मैं अब 60 पूरे कर रही हूं और मैं 65, ऐसा कह कर रमनजी हंस दिए.

‘‘मेरा मतलब यह है कि मेरे बेटेबहू

मुझे कहते हैं जवान बूढे़,’’ हंसते हुए रमाजी

ने कहा.

‘‘अच्छा… अच्छा,’’ रमनजी ने गरदन

हिला कर जवाब दिया. वे जराजरा सा मुसकरा

भी दिए.

‘‘मैं जानना चाहती हूं कि आप को कितने लोग मिल कर इतना दुखी कर रहे हैं कि आप परेशान ही नजर आते हो,’’ रमाजी ने गंभीरता

से पूछा?

रमाजी मेें बहुत ही आत्मीयता थी. वे रमनजी के साथ बहुत चाहत से बात करती थीं. यही कारण था कि रमनजी ने बिना किसी संकोच के सब बता दिया कि वे सेवानिवृत्ति बस कंडक्टर रहे हैं और इकलौते बेटे को 5 साल की उम्र से उन्होंने अपने दम पर ही पाला. कभी सिगरेट, शराब, सुपारी, पान, तंबाकू किसी को हाथ तक नहीं लगाने दिया.

पिछले साल ही बेटे का विवाह

हो गया है. आज स्थिति ऐसी है कि वह और उस की पत्नी बस अपने ही हाल में मगन हैं. बहू एक स्टोर चलाती है और बेटा जूतेचप्पल की दुकान. दोनों को अलगअलग अपना काम है और बहुत अच्छा चल

रहा है.

‘‘ओह, तो यह बात

है. आप को यह महसूस हो रहा है कि अब आप की कोई पूछ ही नहीं रही है न,’’ रमा ने कहा.

‘‘मगर, पूछ तो अब

आप की नजर में भी कम ही हो गई होगी. अब आप को यह पता लग गया कि मैं बस कंडक्टर था,’’ रमनजी फिर उदास हो गए.

उन की इस बात पर रमाजी हंस पड़ीं और बोलीं कि

कोई भी काम छोटा नहीं होता. दूसरा, आप हर बात पर उदासी को अपने पास मत बुलाया कीजिए. यह थकान की जननी है और थकान बिन बुलाए ही बीमारियों को आप के शरीर में प्रवेश करा देती है.

‘‘आप को पता नहीं कि मैं खुद भी ऐसी ही हूं, मगर मेरा यह अंदाज ऐसा है कि फिर भी मेरे बेटेबहू मुझ को बहुत प्यार करते हैं, क्योंकि मैं मन की बिलकुल साफ हूं.’’

‘‘मैं ने 20 साल की उम्र में प्रेम विवाह किया और 22 साल की उम्र में पति को उस की प्रेमिका के पास छोड़ कर अपने बेटे को साथ ले कर निकल पड़ी. उस के बाद पलट कर भी नहीं देखा कि उस बेवफा ने बाकी जिंदगी क्या किया और कितनी प्रेमिकाएं बनाई, कितनों का जीना दूभर किया.

‘‘मैं मातापिता के पास आ कर रहने लगी और 22 साल की उम्र से बेटे की परवरिश के साथ ही बचत पर अपना पूरा ध्यान लगा दिया.

‘‘मेरा बेटा सरकारी स्कूल और कालेज में ही पढ़ा है. अब वह एक शिक्षक है और पूरी तरह से सुखी है.

‘‘हां, तो मैं बता रही थी कि मेरे पीहर

में बगीचे हैं, जिन में 50 आम के पेड़ हैं,

50 कटहल और इतने ही जामुन और आंवले के. मैं ने इन की पहरेदारी का काम किया और पापा

ने मुझे बाकायदा पूरा वेतन दिया.

‘‘जब मेरा बेटा 10वीं में आया, तो मेरे पास पूरी 20 लाख रुपए की पूंजी थी. मेरे भाई और भाभी ने मुझे कहीं जाने नहीं दिया.

‘‘मेरी उन से कभी अनबन नहीं हुई. वे हमेशा मुझे चाहते रहे क्योंकि उन के बच्चों को मेरे बेटे के रूप में एक मार्गदर्शक मिल रहा था. और मेरी वो पूंजी बढ़ती गई.’’

‘‘मगर, बेटे की नौकरी पक्की हो गई

थी और उस ने विवाह का इरादा कर लिया

था, इसलिए हम लोग यहां इस कालोनी में

रहने लगे. पिछले साल ही मेरे बेटे का विवाह हुआ है.

‘‘अपनी बढि़या बचत से औैर जीवनशैली के बल पर ही मैं आज करोड़पति हूं, मगर सादगी से रहती हूं. अपना सब काम खुद करती हूं और कभी भी उदास नहीं रहती.

‘‘पर, आप तो हर बात पर गमगीन हो

जाते हैं. इतने दिनों से आप की व्यथा सुन कर मुझे तो यही लगता है कि आप पर बहुत ही अत्याचार किया जा रहा है. इस तरह आप लगातार दुख में भरे रहे तो दुनिया से जल्दी ही विदा हो जाओगे.

‘‘आप हर बात पर परेशान रहते हो. यह मुझ को बहुत विचलित कर देता है. सुनो… मेरे मन में एक आइडिया आया है…

‘‘आप एक काम करो… मैं कुछ दिन के लिए आप के घर चलती हूं. वहां का माहौल बदलने की कोशिश करूंगी. मैं तो हर जगह सामंजस्य बना लेती हूं. मैं 20 साल पीहर में रही हूं.’’

‘‘मगर आप को ऐसे कैसे…? कोई तो वजह होगी ना मेरे घर चलने की. वहां मैं क्या कहूंगा?’’ रमनजी बोले.

‘‘अरे, बहुत ही आसान है. मेरी बात गौर

से सुनो. आज आप एक गरम पट्टी बांध कर

घर वापस जाओ. कह देना कि यह कलाई अचानक ही सुन्न हो गई है. कोई सहारा देने

वाला तो चाहिए ना. जो हाथ पकड़ कर जरा संभाल ले.’’

‘‘फिर मैं आप के दोस्त की कोई रिश्तेदार हूं, आप कह देना कि बुढि़या है,

मगर ईमानदार है. मेरा पूरा ध्यान रख लेगी वगैरह. वे भी सोचेंगे कि चलो, सही है बैठेबैठे सहायिका भी मिल गई.’’

‘‘कोशिश कर के देखता हूं,’’ रमनजी ने कहा और पास के मैडिकल स्टोर से गरम पट्टी खरीद कर अपने घर की तरफ जाने वाली गली में चले गए.

रमनजी का तीर निशाने पर लगा. एक सप्ताह की तैयारी कर रमाजी उन के घर पहुंच

गई थीं.

रमाजी के आने से पहले रमनजी के बेटेबहू ने उन की एक अलग ही इमेज बना रखी थी और उन को एक अति साधारण महिला समझा था, मगर जब आमनासामना हुआ तो रमाजी का आकर्षक व्यक्तित्व देख कर उन्होंने रमाजी के पैर छू लिए.

यह देख रमाजी ने भी खूब दिल से आशीर्वाद दिया. रमाजी को तो पहली नजर में रमनजी के बेटेबहू बहुत ही अच्छे लगे.

खैर, सब की अपनीअपनी समझ होती है, यह सोच कर रमाजी किसी निर्णय पर नहीं पहुंचीं और सब आने वाले समय पर छोड़ दिया.

अगले दिन सुबह से ही रमाजी ने मोरचा संभाल लिया था. रमनजी अपनी

कलाई वाले दर्द पर कायम थे और बहुत ही अच्छा अभिनय कर रहे थे.

रमाजी को सुबह जल्दी उठने की आदत

थी, इसलिए सब के जागने तक वे नहाधो कर चमक रही थीं, वे खुद चाय पी चुकी थीं,

रमनजी को भी 2 बार चाय मिल गई थीं. साथ ही, वे हलवा और पोहे का नाश्ता तैयार कर

चुकी थीं.

यह देख बेटेबहू भौंचक थे. इतना लजीज नाश्ता कर के वे दोनों गदगद थे. बेटाबहू दोनों अपनेअपने काम पर निकले तो रमनजी ने हाथ चलाया औैर रसोई में बरतन धोने लगे. रमाजी ने बहुत मना किया तो वे जिद कर के मदद करने लगे, क्योंकि वे जानते थे कि 3 दिन तक बाई छुट्टी पर रहेगी.

शाम को बेटेबहू रमाजी को कह कर गए थे कि आज वे बाहर से पावभाजी ले कर आएंगे, इसलिए रमाजी भी पूरी तरह निश्चिंत रहीं और आराम से बाकी काम करती रहीं. उन्होंने आलू के चिप्स बना दिए और साबूदाने के पापड़, गमलों की सफाई कर दी.

एक ही दिन में रमाजी की इतनी मेहनत देख कर रमनजी का परिवार हैरत में था. रात

को सब ने मिलजुल कर पावभाजी का आनंद लिया.

रमनजी और रमाजी रोज शाम को लंबी

सैर पर जा रहे थे. कुछ जानने वालों ने अजीब निगाहों से देखा, मगर दोनों ने इस की परवाह नहीं की.

इसी तरह पूरा एक सप्ताह निकल गया. कहां गुजर गया, कुछ पता ही न चला.

रमनजी और उन के बेटेबहू रमाजी के

दिल से प्रशंसक हो चुके थे. वे चाहते कि

रमाजी वहां कुछ दिन और रहें. ऐसा देख रमनजी का चेहरा निखर उठा था. उन की उदासी जाने कहां चली गई थी. बेटेबहू उन से बहुत प्रेम से बात करते थे. वातावरण बहुत ही खुशनुमा हो गया था.

रमाजी अपने मकसद में कामयाब रहीं.

उन को कुछ सिल्क की साडि़यां उपहार में

मिली, क्योंकि रमाजी ने रुपए लेने से मना कर दिया था.

रमाजी वहां से चली गईं और रमनजी को शाम की सैर पर आने को कह गईं. पर, शाम को रमाजी सैर पर नहीं आ सकीं.

रमनजी को उन्होंने संदेश भेजा कि वे सपरिवार 2 दिन के लिए कहीं बाहर जा रही हैं.

रमनजी ने अपना मन संभाल, मगर तकरीबन एक सप्ताह गुजर गया और रमाजी

नहीं आईं. न ही रमनजी के किसी संदेश का जवाब ही दिया.

रमनजी को फोन करते हुए कुछ संकोच होने लगा, तो वह मनमसोस कर रह गए.

पूरा महीना ऐसे ही निकल गया. लगता था, रमनजी और बूढ़े हो गए थे. मगर वे रमाजी

के बनाए आलू के चिप्स और पापड़ खाते तो लगता कि रमाजी यहीं पर हैं और उन से बातें कर रही हैं.

एक शाम उन का मन सैर पर जाने का हुआ ही नहीं. वो नहीं गए. अचानक देखते

क्या हैं कि रमाजी उन के घर के दरवाजे पर आ कर खड़ी हो गई हैं. वे एकदम हैरान रह गए. अरे, ये क्या हुआ. पीछेपीछे उन के बेटेबहू भी आ गए. अब तो रमनजी को सदमा लगा. वे अपनी जगह से खड़े हो गए.

बहू ने कहा कि रमाजी अब यहां एक महीना रहेंगी और हम उन के गुलाम बन कर रहेंगे.

रमनजी ने कारण जानना चाहा, तो बहू ने बताया कि उस की छोटी बहन अभी होमसाइंस पढ़ रही है. उस को कालेज के अंतिम प्रोजैक्ट में अनुभवी महिलाके साथ समय बिताना है, डायरी बनानी है इसलिए…’’

‘‘ओ हो अच्छा… बहत अच्छा,’’ बहू बहुत ही सही निर्णय,’’ कहते समय रमनजी के चेहरे पर लाली आ गई. मगर उन के परिवार वालों से बात कर ली.

वे अचानक पूछ बैठे, ‘‘परिवार मना कैसे करता. मेरी बहन और रमा आंटी तो फेसबुक दोस्त हैं और रमाजी का परिवार तो समाजसेवा का शौकीन है. है ना रमा आंटी.’’

रमनजी की बहू चहक उठी. रमाजी ने अपने व्यवहार की दौलत से अपने जीवन में कितने सारे दिल जीत लिए थे.

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