सुहासिनी का जी कर रहा था कि वह चीखचीख कर अपने दिल में छिपा दर्द सारे जहान के सामने रख दे. आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे तो अपमान की चोट खाया मन अंदर से सांप की तरह फुफकार रहा था. वह हाथ में रिसीवर थामे पत्थर की मूर्ति सी खड़ी रही.
कुछ महीने पहले यही एजेंट था जो आवाज में शहद की मिठास घोल कर बातें करता था. कहता था, ‘मैडम, गरीबी में जन्म लेना पाप नहीं, गरीबी में अपने को एडजस्ट करना पाप है. अब सोचें कि उस छोटी, गंदी सरस्वती बाई चाल में आप के बच्चे का भविष्य क्या होगा. ऐसा सुनहरा अवसर फिर हाथ नहीं आएगा इसलिए हर माह की आसान किस्तों पर इंद्रप्रस्थ कालोनी में एक फ्लैट बुक करा लीजिए.’ और आज वही एजेंट फोन पर लगभग गुर्राते हुए फ्लैट की मासिक किस्त मांग रहा था.
दरवाजे की घंटी बजते ही सुहासिनी का ध्यान उधर गया. उस ने दरवाजा खोल कर देखा तो सामने डाकिया खड़ा था, जिस ने एकसाथ 3 लिफाफे उसे पकड़ाए. पहला लिफाफा मिकी के पोस्टपेड सेलफोन के बिल का था. दूसरा मासिक किस्त पर खरीदी गई कार की किस्त चुकाने का था और तीसरा सोमेश के क्रेडिट कार्ड से की गई खरीदारी का विवरण था. इतनी देनदारी एकसाथ देख कर सुहासिनी का सिर चकरा गया और वह धम से वहीं बैठ गई. उसे लगा कि वह ऐसे चक्रव्यूह में फंस गई है जिस में अंदर घुसने का रास्ता तो वह जानती थी, बाहर निकलने का नहीं.
सुहासिनी को उस शाम की याद आई जब सोमेश उसे समझा रहे थे, ‘घर में सुखशांति बनाए रखने के लिए आलीशान चारदीवारी की नहीं संतोष और संतुष्टि की जरूरत है.’