मौल में टहलते हुए मेरी नजर अपनी क्लासमेट दीर्घा पर पड़ी, तो थोड़ी देर तो मैं उसे पहचान न सकी क्योंकि वह पहले से काफी दुबली हो गई थी और उस के चेहरे का रंग फीका पड़ गया था. फिर उसे पहचाना तो, ‘‘दीर्घा,’’ कह कर मैं ने उसे आवाज दी. साथ ही तेजी से उस की तरफ बढ़ी. वह मेरी आवाज पर मुड़ी और उस ने मु झे पहचानने में देरी न की.
‘‘सुधा,’’ वह मुसकराई.
‘‘यहां कानपुर में क्या कर रही हो?’’
मैं ने पूछा.
‘‘मौसी के यहां आई हूं. मेरा बेटा बबलू घूमने की जिद कर रहा था, इसलिए चली आई.’’
‘‘अब तो वह काफी बड़ा हो गया होगा?’’
‘‘हां, 10 साल का है. ठहरो, अभी तुम को उस से मिलाती हूं,’’ कह कर दीर्घा ने बबलू को आवाज दी. वह कुछ बच्चों के साथ खेल रहा था.
‘‘बेटा, ये तुम्हारी सुधा मौसी हैं,’’ दीर्घा बोली तो उस ने बिना देर किए मेरे पैर छुए. मु झे अच्छा लगा.
‘‘तुम्हारे पतिदेव नहीं दिख रहे?’’ मैं ने इधरउधर नजरें दौड़ाईं. फिर महसूस किया कि पति के नाम पर उस का चेहरा उदास हो गया. अनायास ही मेरी नजर उस की सूनी मांग पर गई. मैं किसी निष्कर्ष पर पहुंचती, उस से पहले वह बोली, ‘‘मेरा उन से तलाक का मुकदमा चल रहा है.’’
‘‘क्यों?’’ मेरे सवाल पर वह बेमन से मुसकरा कर बोली, ‘‘सब यहीं पूछ लेगी? चल उधर चल कर बैठते हैं.’’
हम दोनों फू्रट ले कर पार्क में आ कर बैठ गए. वह कहने लगी, ‘‘तू तो जानती है कि मेरे पापा सरकारी नौकरी में थे. उन का ट्रांसफर इलाहाबाद से जबलपुर हो गया, तो बीए कर के
मैं भी वहीं चली गई. वहां पापा की मुलाकात सुबोध से हुई जो उन्हीं के विभाग के कर्मचारी थे और अविवाहित थे. पापा को वे अच्छे लगे, तो बिना देरी किए मेरी शादी के लिए उन्होंने उन के मम्मीपापा से संपर्क किया, तो संयोग से वे इलाहाबाद के ही रहने वाले निकले. वहां बात बन गई तो मेरी शादी उन के साथ हो गई. सुबोध से मु झे एक बेटा बबलू हुआ. फिर 2 साल ठीकठाक गुजरे. वे कभीकभी इस शादी को ले कर असंतोष प्रकट करते, तो मैं उसे दिल से नहीं लेती थी. सोचती थी कि मर्दों की तो यह फितरत ही होती है. वे अकसर अपने मांबाप से मिलने इलाहाबाद जाते रहते. एक बार गए तो जबलपुर नहीं लौटे, वहीं से नौकरी से इस्तीफा दे दिया.’’
‘‘इस्तीफा, क्यों?’’
‘‘मैं भी नहीं सम झी. अचानक कोई सरकारी नौकरी छोड़ता है क्या? वैसे मेरा ससुराल
संपन्न था. शहर में बड़ा सा मकान था. उस से अच्छाखास किराया आता था. पर उन का एकाएक नौकरी छोड़ कर व्यापार करना मेरी सम झ से परे था.’’
‘‘तो क्या तुम भी इलाहाबाद गई थीं?’’
‘‘जाना तो चाहती थी पर वे ही मना कर देते. कहते जब उचित होगा तो बुला लूंगा. तब तक अपने मांबाप के पास रहो. हां, यह जरूर था कि वे हर महीने मु झे रुपए भेजते थे. धीरेधीरे 1 साल हो गया. पापा बारबार कहते कि मु झे ससुराल जाना चाहिए. परंतु मैं ही मना कर देती. सोचती, न जाने क्या सोच कर उन्होंने आने के लिए मना किया है और चली जाती तो निश्चय ही उन्हें बुरा लगता.’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
‘‘होना क्या था, मु झे विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि उन्होंने एक विजातीय लड़की से प्रेम विवाह कर लिया और उसी के साथ रहने भी
लगे हैं.’’
‘‘तुम्हारे सासससुर ने एतराज नहीं किया?’’
‘‘मैं नहीं जानती. हां, अपना हक मांगने गई तो किसी ने मु झे घर में घुसने नहीं दिया. उलटे चरित्र पर कीचड़ उछाल कर बाहर का रास्ता दिखा दिया.’’
‘‘कितना आसान होता है स्त्री पर लांछन लगाना,’’ मैं बुदबुदाई फिर दीर्घा से बोली, ‘‘तुम को प्रतिरोध करना चाहिए था. जबरदस्ती घर में घुस कर हक जमाना चाहिए था.’’
‘‘यह इतना आसान नहीं था. ससुराल में हक पति से बनता है. जब पति ही नहीं रहा, तो किस मुंह से हक जमाती?’’
‘‘उसे अपने बच्चे का भी खयाल नहीं आया?’’
‘‘जो आदमी रासरंग में डूबा हो उसे भला अपने खून का खयाल क्या आएगा?’’ उस की आंखों में वेदना की रेखा उभर आई. अगले ही पल वह उस से उबरी. मुसकराकर बोली, ‘‘सुना है वह तेरी तरह ही तीखे नाकनक्श वाली सुंदर महिला है,’’ फिर बोली, ‘‘उस रोज के बाद
मैं ने हमेशा के लिए उस से अलग होने का फैसला ले लिया.’’
दीर्घा की आपबीती सुन कर मु झे बहुत
दुख हुआ.
वापस इलाहाबाद आई तो काफी दिनों तक दीर्घा मेरे जेहन में बनी रही. मैं ने इस की चर्चा अपने पति सुबोध से की. पहले तो वह सकपकाया फिर सामान्य होते हुए बोला, ‘‘तुम तो बेमतलब का किस्सा ले कर बैठ जाती हो. जिस की समस्या है वह जाने. तुम अपना माथा क्यों खराब करती हो?’’
‘‘वह व्यक्ति मेरे सामने आ जाए तो मैं उसे नहीं छोडूंगी,’’ मेरे इस कथन पर सुबोध ने हंस कर बात को टाला.
दीर्घा जब कभी फुरसत में होती मु झ से फोन पर अवश्य बात करती. ऐसे ही एक रोज उस ने कहा कि परसों तलाक की तारीख पड़ी है. मैं इलाहाबाद आऊंगी तो तुम से अवश्य मिलूंगी. मैं उस दिन का इंतजार करने लगी. सुबोध सुबह 10 बजे से ही अपने काम के सिलसिले में घर से निकला हुआ था. सासससुर नौकरी पर गए थे. मैं घर में बिलकुल अकेली थी. सोचा, दीर्घा आएगी तो खूब बातें करेंगे, मगर 3 बज गए वह नहीं आई. सुबोध आया तो मेरी बेसब्री को ताड़ गया.
मैं ने कहा, ‘‘दीर्घा का इंतजार कर रही हूं.’’
‘‘दीर्घा, दीर्घा, दीर्घा,’’ वह एकाएक उबल पड़ा, ‘‘तुम्हें और कोई दोस्त नहीं मिला?’’
‘‘आप दीर्घा का नाम सुन कर आपे से बाहर क्यों हो गए? यह हमारा आपसी मामला है,’’ मैं ने भी उसी लहजे में जवाब दिया.
‘‘मु झ से ज्यादा कोई तुम्हारा करीबी होगा?’’ सुबोध बोला.
‘‘मैं तुलना नहीं कर रही हूं,’’ मैं गुस्से से बोली. हम दोनों में तूतू मैंमैं हो रही थी कि दीर्घा ने दस्तक दी. मैं तेजी से चल कर फाटक तक आई तो मु झे देख कर वह मुड़ने लगी. मु झे आश्चर्य हुआ कि वह क्यों ऐसा कर रही है?
‘‘दीर्घा,’’ मैं ने आवाज दी पर वह अनसुनी कर के चल दी. जब कई बार आवाज लगाने के बाद भी उस ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा तो मु झे गुस्सा आया. लेकिन यह सोच कर चिंता से घिर गई कि आखिर दीर्घा ने ऐसा क्यों किया? मैं वापस घर में आई और बिना कुछ बोले बिस्तर
पर पड़ गई. मेरे दिमाग में सैकड़ों सवाल हथौड़े की भांति प्रहार करने लगे. दीर्घा का इस तरह
चले जाने की क्या वजह हो सकता है? मैं ने हर तरीके से हल ढूंढ़ना चाहा पर किसी नतीजे पर न पहुंच सकी.