रात में मैं ने खाना नहीं खाया. सुबोध से वैसे भी मेरा मन तिक्त था, इसलिए अलग कमरे में लेट गई. तभी दीर्घा का फोन आया, ‘‘सुधा, कहना तो नहीं चाहती पर कहना इसलिए पड़ रहा है कि कहीं तुम्हारे मन में मेरे प्रति दुर्भावना न समा जाए. पहले तो मैं तुम से बिना मिले लौट आने की अभद्रता के लिए माफी मांगती हूं. दूसरी बात जो मैं तुम से कहना चाह रही हूं क्या तुम सुन सकोगी?’’
मेरे कान खड़े हो गए. ऐसा कौन सा राज है, जो दीर्घा खोलना चाहती है और वह मेरे सुनने लायक क्यों नहीं है? मेरा उस राज से क्या ताल्लुक है? कहीं…? मेरा मन कुछ सोच
कर विचलित होने लगा फिर भी दीर्घा के मुख
से सुनने का लोभ संवरण न
कर सकी.
‘‘सुबोध नाम है न तेरे पति का?’’ दीर्घा ने पूछा तो मैं ने डरते हुए हां में जवाब दिया.
‘‘तो सुन, वही मेरा पति है.’’
यह सुन कर एकदम से मु झे काठ मार गया. मैं अवाक रह गई. कुछ देर कुछ नहीं सू झा. फिर किसी तरह अपनेआप को संभाला और कांपते स्वर में पूछा, ‘‘दीर्घा, तुम्हें धोखा तो नहीं हुआ?’’
‘‘कोई धोखा नहीं हुआ. वह घर मेरा जानापहचाना है,’’ अब शक की कोई गुंजाइश नहीं रही. मैं निढाल बिस्तर पर पड़ गई. मु झ से न तो रोते बन रहा था न ही हंसते. इतना बड़ा धोखा किया सुबोध ने मु झ से? माना कि मैं उस के प्यार में डूबी रही पर उसे तो अपने बीवीबच्चे का खयाल होना चाहिए था. जिसे अपने खून के रिश्ते का मोह नहीं, वह भला मेरा क्या मोह करेगा? कल कोई और मिलेगा तो उसे लाएगा. सुबोध का मेरे प्रति प्रेम मु झे महज दिखावा और प्रेम कम वासना ज्यादा लगने लगा. बहरहाल, अब किया क्या जा सकता था? अगर मैं कोई बखेड़ा खड़ा करती हूं तो घर में अशांति पैदा होगी. सुबोध ने हमेशा मेरे साथ सकरात्मक व्यवहार किया. कभी कोई शिकायत का मौका नहीं दिया. आर्थिक संपन्नता के बाद भी जब मैं ने अकेलेपन से बचने के लिए एक स्कूल में पढ़ाना चाहा, तो सुबोध ने कोई एतराज नहीं किया. काफी सोचविचार के बाद मैं ने इस मामले को दबा देने में ही भलाई सम झी.
एक दिन मेरे घर एक रजिस्टर्ड लिफाफा आया. उस रोज सुबोध घर पर नहीं था और संयोग से मैं ने उस दिन स्कूल से छुट्टी ले रखी थी. मैं लिफाफा खोलना तो नहीं चाहती थी पर मन नहीं माना तो खोला. पत्र सुबोध के नाम था. मैं उसे पढ़ने लगी. उस में लिखा था-
सुबोध,
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि जिस के लिए तुम ने अपनी ब्याहता को छोड़ा वह मेरी सहेली है. अब और कुछ कहने या करने के लिए नहीं रह गया. तुम मु झ से छुटकारा चाहते हो तो मैं तैयार हूं. मेरा घर तो बरबाद हो गया. अब मैं अपनी सहेली का घर बरबाद नहीं होने देना चाहती. वैसे भी उस पति और घर के लिए क्या लड़ना, जिस ने मु झे चित्त से उतार दिया हो. अगली बार जब तुम तारीख पर आओगे, मैं तुम्हें बिना किसी व्यवधान के तलाक दे दूंगी.
-तुम्हारी दीर्घा
दीर्घा के त्याग के आगे मैं खुद को बौना सम झने लगी. मेरी मन भीग गया. मु झे सपने में भी दीर्घा से ऐसे व्यवहार की उम्मीद न थी. मु झे अफसोस होने लगा कि मैं ने क्यों नहीं सुबोध के सामने दीर्घा की बात उठाई? क्यों सिर्फ अपने हित की सोची? कम से कम सुबोध को इतना एहसास तो दिला ही देना चाहिए था कि उस ने सुधा का साथ जो नाइंसाफी की उस के लिए मैं उसे कभी माफ नहीं करूंगी.
उस दिन मैं ने मन बना लिया कि जैसे ही सुबोध मेरे कमरे में सोने के लिए आएगा, मैं उस से यह जान कर रहूंगी कि उस ने सुधा के साथ ऐसा क्यों किया?
सुबोध आया तो मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या तुम दीर्घा को जानते हो?’’
दीर्घा का नाम सुनते ही वह सकपकाया. पर अगले पल संयत हो गया, ‘‘दीर्घा, कौन दीर्घा?’’ उस ने अनजान बनना चाहा.
‘‘तुम्हारी पत्नी,’’ मेरे चेहरे पर व्यंग्य के भाव तिर गए.
अब छिपाने के लिए कुछ नहीं रह गया, तो थोड़ी देर तो सुबोध चुप रहा. फिर इतमीनान से कहने लगा, ‘‘बेशक तुम जो जानना जो चाहती हो, जान सकती हो. पर हकीकत यह है कि मैं ने किसी को धोखा नहीं दिया. जब पहली बार मैं ने तुम्हें अपनी ममेरी बहन के घर में देखा था, तभी से मैं तुम्हें चाहने लगा था. यह अलग बात थी कि तुम इस से बेखबर थीं.
मैं ने अपनी मां से तुम से शादी करने की इच्छा जाहिर की तो वे बिफर गईं और कहने लगीं कि तुम्हारे पापा इस शादी के लिए हरगिज तैयार नहीं होंगे. इस का कारण उन्होंने तुम्हारा विजातीय होना बतलाया. तब मैं ने मां से उन की विजातीय होने का सवाल उठाया तो पापा सुन कर बिफर पड़े. वे बोले कि मैं ने जो सामाजिक तिरस्कार भोगा है क्या तुम भी भोगोगे? पापा का यह कथन मेरी सम झ से परे था. शादी के 25 साल गुजर गए तिस पर यह शिकायत? फिर पापा कहने लगे कि आज भी बिरादरी में लोग मु झे अच्छी नजरों से नहीं देखते हैं. बेशक तेरी मां भी सवर्ण थी पर थी तो दूसरी जाति की. यह तो अच्छा हुआ कि घर में कोई लड़की नहीं हुई. वरना उस की शादी के तो लाले पड़ जाते.
‘‘मेरे यह पूछने पर कि क्या मां ने कभी आप को शिकायत का मौका दिया? पापा के पास कोई जवाब नहीं था. जाहिर है, वे मां से संतुष्ट थे. फिर तुम से क्यों नहीं? उन की यही बात मु झे नागवार लगी. मेरी भूल यह थी कि मैं ने तुम से अपने मन की बात नहीं की. इस बीच मेरी अरेंज मैरेज हो गई, जो मैं नहीं चाहता था. शादी के बाद भी मैं तुम्हें नहीं भूला था. शादी के 2 साल बाद जब मैं अपनी ममेरी बहन के यहां गया तो मौका पा कर मैं ने तुम से अपने मन की बात कह डाली. फिर जब तुम ने अपने मन की बात कही तो मु झे यकीन ही नहीं हुआ कि तुम भी मु झ से उतना ही प्यार करती हो.
मैं तुम्हारी रजामंदी से इतना उत्साहित था कि यह कहना मुनासिब नहीं सम झा कि मैं शादीशुदा हूं, क्योंकि यदि ऐसा करता तो तुम्हारे खो जाने का भय था. इसीलिए बिना देर किए मैं ने तुम से कोर्ट मैरिज कर ली. फिर जब घर में सब के सामने इस विवाह का खुलासा किया तो पापा आपे से बाहर हो गए. वे दीर्घा को छोड़ने के पक्ष में नहीं थे. उन्होंने मु झे अलग रहने तक के लिए कह दिया. पर मम्मी ने सम झाया कि जब लड़का ही तैयार नहीं है, तो दीर्घा को रखने का क्या तुक? कोई औरत सौत बरदाश्त नहीं कर सकती. घर में रहेगी तो कलह रहेगा. अंतत: यही फैसला हुआ कि तुम ससुराल आ कर रहोगी पर भूले से भी कोई इस विवाह की चर्चा तुम से नहीं करेगा. कोशिश की जाएगी कि तुम्हें पता ही न चले. संयोग से एकाध बार दीर्घा यहां आई भी तो तुम स्कूल में रहीं, इसलिए तुम उस के बारे में कभी जान ही न सकीं.’’
मु झे दीर्घा से सहानुभूति थी पर अपने हितों की बलि दे कर नहीं. उस रोज के बाद न ही दीर्घा ने कभी मु झे फोन किया न मैं ने कभी उस का हाल जानने की कोशिश की.