शहर भर में यह अफवाह फैल गई कि मुखबिरों को मौत के घाट उतारा जा रहा है. हालांकि पिछले 50 सालों से घाटी में हत्या की एक भी वारदात सुनने में नहीं आई थी पर अब आएदिन 5-10 आदमी गोलियों के शिकार हो रहे थे. हर व्यक्ति के चेहरे पर आतंक और भय के चलते मुर्दनी छाई हुई थी. अपनेआप पर विश्वास करना कठिन हो रहा था. हर कोई अपनेआप से प्रश्न पूछता:
‘कहीं मुखबिरों की सूची में मेरा नाम तो नहीं? किसी पुलिस वाले से मेरी जानपहचान तो नहीं? या फिर मुझे किसी सिपाही से बातें करते हुए किसी ने देखा तो नहीं?’ उस की चिंता बढ़ जाती.
‘मेरे राजनीतिक संबंधों के बारे में किसी को पता तो नहीं?’ यह सोचसोच कर दिल की धड़कनें और भी तेज हो जातीं. ‘किसी उग्रवादी से मेरी दुश्मनी तो नहीं?’ यह सोच कर कइयों का रक्तचाप बढ़ने लगता और वे अगले दिन आंख खुलते ही स्थानीय अखबारों के दफ्तर में जा कर विज्ञापन के माध्यम से स्पष्ट करते कि वे किसी राजनीतिक पार्टी से संबंधित नहीं हैं और न ही सूचनाओं के आदान- प्रदान से उन का कोई लेनादेना है. इन सब कोशिशों के बावजूद उन्हें मानसिक संतोष हासिल नहीं होता था. सारे वातावरण में बेचैनी और अस्थिरता फैली हुई थी.
मौत इतनी भयानक नहीं होती जितनी उस की आहट. हर कोई मौत के इस जाल से बच निकलने के रास्ते तलाश रहा था.
किसी का माफीनामा प्रकाशित करवाना, किसी का अपनी सफाई में बयान छपवाना तो चल ही रहा था मगर कुछ तो घाटी छोड़ कर ही जा चुके थे. नीलकंठ ने ऐसा कुछ भी नहीं किया. उन्होंने अपने जीवन के 65 साल संतोष और संयम से व्यतीत किए थे. विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे अपनी ही धुन में जिए जा रहे थे.