‘‘निर्धनतथा संपन्न, सबल तथा निर्बल के बीच कभी न समाप्त होने वाली असमानता व्याप्त है. परंतु इस क्षणभंगुर संसार में भी एकमात्र वही हैं, जिस ने बिना किसी पक्षपात हर श्रेणी में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है. नियत समय पर भयमुक्त आती है और मनुष्य को अपनी सत्ता दिखा जाती है, मृत्यु ही परम सत्य है.’’
‘‘परंतु मैम, जीवन क्या परम सत्य नहीं हैं?’’
‘‘आप के जीवन में नवांकुर पल्लवित होगा अथवा नहीं, इस में संशय हो सकता है, परंतु मृत्यु आएगी इस में कोई संशय नहीं है. इसलिए मेरे अनुसार जीवन एक सार्वभौमिक सत्य है परंतु परम सत्य तो मृत्यु ही है,’’ अपने प्रथम वर्ष के विधार्थियों की भीड़ को मुग्ध कर प्रोफैसर सुभा ने अपनी बात समाप्त की और कक्षा से निकल गई.
सुभा की सर्विस का यह 10वां वर्ष था. अपने इन 10 वर्षों के कार्यकाल में वह देहरादून स्थित एल.एम. कालेज में दर्शनशास्त्र का पर्याय बन गई थी. अपने सभी विद्यार्थियों को उस ने दर्शन कला में इतना निपुण बना दिया था कि उस ने पिछली बार कालेज के मुख्यातिथि, राज्यपाल को वर्ण व्यवस्था पर आधारित नाटिका में अपने विचारों से मुग्ध कर दिया था.
माननीय अतिथि के सम्मान में उस विलक्षण प्राध्यापिका ने प्राचार्य के कुछ ही क्षणों के दिए गए आदेश का पालन कर सुंदर कार्यक्रम ही प्रस्तुत नहीं किया, एक मानपत्र भी भेंट किया. उस की लच्छेदार और त्रुटिरहित भाषा की सराहना स्वयं राज्यपाल ने भी की थी.
इस वर्ष भी कार्यक्रम की सूत्रधार सुभा ही थी. उस के निर्देशन में दर्शनशास्त्र के छात्र एक विशेष नाटिका की तैयारी में व्यस्त थे. ‘सबरी का प्रेम’ नामक नाटक के मंचन की तैयारियां चल रही थीं. यह एक सवर्ण राजकुमार और दलित कन्या के प्रेम पर आधारित नाटिका थी.
नवल को भी नाटक में एक छोटी सी भूमिका निभाने का मौका मिल गया था. वह दर्शनशास्त्र के प्रथम वर्ष का छात्र था. उस के पिता देवेन देहरादून के प्रख्यात हीरा व्यवसायी थे. नवल उन का एकमात्र पुत्र था.
उस की उम्र में समाज और स्वयं को ले कर ढेरों प्रश्न होते हैं. अपने इन्हीं प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए वह सुभा के समीप जाने लगा था. प्रतिदिन की मुलाकातों और सुभा के दोस्ताना व्यवहार ने नवल को मुखर बना दिया था. हालांकि सुभा का आचरण सब विद्यार्थियों के साथ समान ही था, परंतु अपरिपक्व नवल स्वयं को उस के निकट अनुभव करने लगा था.
सुभा को देख कर कोई दोबारा देखने का लोभ विस्मरण नहीं कर पाता था. उस के जैसी ओजस्वी वक्ता अपनी मीठी वाणी और अकर्तित तर्कों के मोहपाश में कड़े से कड़े आलोचक को भी बांध देती थी तो फिर नवल तो एक अपरिपक्व और अपरिणामदर्शी युवक था. सुभा को देख कर उस के भीतर विस्मय मिश्रित श्रद्धा का भाव उत्पन्न हुआ था, जिस ने कालांतर में एकतरफा प्रेम का रूप ले लिया.
एक दिन नाटक के प्राभ्यास के पश्चात जब सभी थोड़ा विश्राम कर रहे थे नवल ने अनायास ही एक प्रश्न पूछ लिया, ‘‘मैम, समानता कब आएगी?’’
सुभा ने जरा हंस कर सामने पड़ी कुरसी को हाथ से ठेल कर कहा, ‘‘जिस दिन हर मनुष्य यह जान लेगा कि जिस धर्म, जाति, रंग, प्रदेश अथवा देश के दंभ में वह स्वयं को दूसरों से उच्च समझता है, वह उस की कमाई नहीं, बल्कि विरासत है, समानता उसी क्षण आ जाएगी.’’
नवल ने पुन: प्रश्न किया, ‘‘परंतु इस में तो संदेह है, तो क्या शांति कभी नहीं होगी?’’
सुभा पलभर चुप रह कर मीठे स्वर में बोली, ‘‘जब कर्मठ और मेहनतकश लोगों का राज होगा शांति तभी आएगी. उन की बस एक जाति होगी- कर्मण्यता. जो निठल्ले और नाकारा लोग हैं वे लड़ने और लड़ाने के अलावा कुछ सोच ही नहीं सकते.
‘‘यदि लोग अपनी हर मुसीबत का हल स्वयं ढूंढ़ने लगें तो सोचो पंडितों की तो दुकानें ही बंद हो जाएंगी,’’ सबरी का पात्र निभाने वाली मेघा की इस बात पर सभी हंस पड़े थे और माहौल हलका हो गया था.
नवल भी कुछ क्षण चुप रह कर बोला, ‘‘आरक्षण समानता के प्रथम सोपान की तरह था. परंतु आप को नहीं लगता कि वह भी समाज की सोच को नहीं बदल पाया?’’
‘‘हां, कह तो तुम सही रहे हो, परंतु यह बात भी तो है कि शोषित वर्ग की इस व्यवस्था में हिस्सेदारी भी तो बड़ी है. पहले उच्च पद पर कितने दलित मिलते थे, परंतु आज देखो,’’ उन में से एक छात्र रमन ने जवाब दिया.
‘‘हां, आज तो आलम यह है कि जो लोग पहले ऊंची जाति के गुमान में रहते थे, वे भी आरक्षण के दायरे में आने के लिए आंदोलन कर रहे हैं. अब इसे क्या कहेंगे?’’ हरमन व्यंग्यात्मक मुसकान के साथ बोला.
सुभा चुप ही रही. वह विद्यार्थियों को अपना मत रखने देना चाहती थी.
नवल ने दुखी हो कर कहा, ‘‘इस से कुछ भी नहीं बदला, स्थिति आज भी सोचनीय है. हां, कभीकभी शोषक और शोषित की जाति बदल जाती है. किसी विभाग में उच्च अधिकारी निम्न वर्ग का होता है, तो वह सवर्ण जाति के अपने मातहतों का तिरस्कार करता है जैसे ऐसा करने से वह अपने पूर्वजों के अपमान का बदला ले रहा हो अथवा समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था को चोट पहुंचा रहा हो,’’ गौतम उस की बात का जवाब देते हुए तुरंत बोल पड़ा, ‘‘अंधकार में यदि भूतों के भय से नेत्र बंद कर यदि तुम आराम पाते हो तो ऐसा ही सही, मैं तुम्हें नेत्र खोलने को नहीं कहूंगा. अपने मातहतों का अपमान करने वाला निम्नवर्ग का हो न हो दंभी अवश्य होता है. दफ्तरों में, विद्यालयों में यहां तक कि पूजास्थलों में भी दलितवर्ग को मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है.
‘‘मैं बड़े शहरों की बात नहीं कर रहा. वहां शायद स्थिति अपेक्षाकृत संतोषजनक है. इस का कारण लोगों की सोच में बदलाव हो, यह ठीकठीक तो नहीं कह सकता, परंतु मीडिया का सशक्त होना अवश्य है. परंतु छोटे शहरों खासकर गांवों में स्थिति आज भी चिंतनीय है. आज भी पुकारने के लिए हम निम्न और उच्चवर्ग शब्द का इस्तेमाल करते हैं, आज भी हमारे फार्म में जाति का एक कालम है. आज भी इस देश के चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़े और जीते भी जाते हैं. यही साबित करता हैं कि असमानता की यह खाई कितनी चौड़ी है.
‘‘अनुत्तरित नवल ने उस की बात का अनुमोदन करते हुए चुपचाप सिर हिला दिया.
अब तक शांत खड़ी सुभा ने हाथ के पन्नों को ठीक स्थान पर रख कर बोलना शुरू किया, ‘‘चाहे वह तथाकथित उच्चवर्ण हो अथवा तथाकथित निम्नवर्ण, प्रभुता की लड़ाई में पलड़ा जिस ओर ज्यादा झकेगा, विद्रोह होगा. शोषक और शोषित वर्ग की भूमिकाएं बदलती रहेंगी. यह विद्रोह विनाश लाएगा, प्रत्युत इस विनाश में ही नवजीवन का विकास निहित है.
‘‘इस संगति की उन्नति किसी एक वर्ग की समृद्धि में नहीं वरन सभी वर्गों की सम्मिलित विकासन में है. कोई भी वर्ग किसी दूसरे वर्ग का शोषण कर समानता नहीं ला सकता, समानता के लिए बौद्धिक विकास अनिवार्य है,’’ इतना कह झक कर नवल के कंधे को सहसा हलका सा दबा कर हौल के बाहर चली गई. नवल मंत्रमुग्ध सा देखता रह गया.