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किंतु न जाने कब नियति ने उन के मनमंदिर में सुभा का अनाधिकार प्रवेश करा  दिया था. देवेन जान भी नहीं पाए थे और उन के अभेद संयम दुर्ग में प्रेम नामक एक सर्प घुस आया था. वह तो क्या संसार का संयमी से संयमी पुरुष भी होता तो वह भी उस चंचल और सुंदर किशोरी का हाथ थामते ही दुस्साहसी बन जाता. 2 वर्षों के अमूल्य साथ ने जाति विभेद के अस्तित्व को ही मिटा दिया था.

उन के दाएंबाएं, दामिनी सी दमकती वह दुस्साहसिनी लड़की उन्हें उंगुलियों पर नचा रही थी. जिस के परिवार के दुश्चरित्रता की दिगंत्व्यापी दंतकथाओं को वे सुनते आ रहे  थे और जिस से उन्हें नफरत होनी चाहिए थी, उसी को पाने के लिए वे स्वप्नों के शून्याकाश में बांहें फैलाने लगे थे.

‘‘तेरे जैसी मूर्खा से प्रेम कर बैठा हूं, बस शंभू तेरी इस बुद्धि और हमारे इस प्रेम को दुनिया की नजरों से बचा कर रखे.’’

यह सुनते ही सुभा उस के गले में बांहें डाल कर झल पड़ी थी. पर शंभू में युगल प्रेमियों की इस प्रणयकिलोल में सहयोग देने का धैर्य नहीं रहा और देवेन के पिता को सब पता चल गया.

न्यायधीश के सामने जब देवेन की पेशी हुई, झठ नहीं बोल पाए थे वे.

‘‘ब्राह्मण हो कर शूद्र की लड़की से प्रेम तुम्हें शोभा नहीं देता,’’ पंडितजी ने भीतर कठिनाई से दबाए जाने वाले क्रोध को बड़ी कठिनाई से रोक कर कहा.

‘‘और फिर ऐसी मति भ्रष्ट, चरित्रहीन और विप्लवी लड़की के साथ क्या तुम्हारा निबाह हो पाएगा?’’ कभी किसी भी रूप में अपना मत न प्रकट करने वाली माता भी आज बोली थी. इस के पीछे का कारण पुत्र प्रेम था अथवा सौतिया डाह इस की मीमांसा का भार स्वयं उन्हीं पर था.

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