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रीवा भावेश की भावनाओं से अनजान नहीं थी. सबकुछ देख और सुन कर भावेश की जगह कोई भी होता वह भी ऐसा ही विचलित हो जाता. किसी तरह दिन बीता. रीवा उस से मिलने समय से पहले आ गई थी. आज उस के चेहरे पर वह खुशी नहीं थी जो पिछली बार भावेश को दिखाई दी थी. आते ही उस ने भावेश को गले लगाया. भावेश को उस के लिपटने पर आज वह उत्तेजना  महसूस नहीं हुई जो पिछली 2 मुलाकातों में हुई थी.

‘‘मुझे देख कर खुश नहीं हो?’’

‘‘यह क्या कह रही हो रीवा? आज तुम्हारी आवाज में वह जोश नहीं है जो पिछली मुलाकातों में था.’’

‘‘तुम ठीक कह रहे हो.’’

‘‘तुम्हें देख कर मन में दबी हुई भावनाएं फिर से भड़क गई थीं लेकिन तुम्हारी बातों ने उन पर ठंडा पानी डाल दिया.’’

‘‘तुम्हें सुन कर अच्छा नहीं लगा. जिस ने भुगता होगा उसे कैसा लगा होगा उस की तुम कल्पना भी नहीं कर सकते.’’

‘‘तुम्हारी दुनिया इतनी कैसे बदल गई रीवा?’’

‘‘यहां तक पहुंचने के लिए बहुत संघर्ष किया मैं ने. अपनेआप से लड़ कर तब जा कर इस रूप में आई हूं जिस में मुझे सामने देख रहे हो.’’

‘‘अम्मांबाबूजी को सब पता है?’’

‘‘बाबूजी रहे नहीं. अम्मां को इस के बारे में कोई जानकारी नहीं है. हर महीने रुपए भेज देती हूं और साथ में एक प्यारी सी चिट्ठी जिसे वे बारबार पढ़ सकें. इसी में वे भी खुश हैं और मैं भी.’’

‘‘तुम्हें यह सब करने की जरूरत क्यों पड़ी?’’

‘‘बाबूजी के जाने के बाद घर की हालत बहुत खराब हो गई थी. अपने भी मदद के नाम पर मेरा शोषण करने पर उतर आए थे. घर की हालत देख कर मैं परेशान थी. समझ नहीं आ रहा था क्या करूं. मैं समझ गई वहां रह कर अपने हालात सुधरने वाले नहीं हैं. मुझे वहां से बाहर निकलना होगा. दिल्ली में मां के दूर के रिश्ते के भाई रहते थे. मैं ने सोच लिया उन के पास जा कर कोई काम ढूंढ़ लूंगी. मां को भी यह बात समझ आ गई थी. उन्होंने मुझे शहर जाने की इजाजत दे दी और मैं गांव छोड़ कर शहर चली आई.’’

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