सुबह के सारे काम प्रियदर्शिनी बड़ी फुरती से निबटाती जा रही थी. उस दिन उसे नगर की प्रतिष्ठित महिला एवं बहुचर्चित समाजसेविका कमला देवी से मिलने के लिए समय दिया गया था. काम के दौरान वह बराबर समय का हिसाब लगा रही थी. मन ही मन कमला देवी से होने वाली संभावित चर्चा की रूपरेखा तैयार कर रही थी.
आज तक उस का समाज के ऐसे उच्चवर्ग के लोगों से वास्ता नहीं पड़ा था लेकिन काम ही ऐसा था कि कमला देवी से मिलना जरूरी हो गया था. वह समाज कल्याण समिति की सदस्य थीं और एक प्रसिद्ध उद्योग समूह की मालकिन. उन के पास, अपार वैभव था.
कितनी ही संस्थाओं के लिए वह काम करती थीं. किसी संस्था की अध्यक्ष थीं तो किसी की सचिव. समाजसेवी संस्थाओं के आयोजनों में उन की तसवीरें अकसर अखबारों में छपा करती थीं. उन की भारी- भरकम आवाज के बिना महिला संस्थाओं की बैठकें सूनीसूनी सी लगती थीं.
ये सारी सुनीसुनाई बातें प्रियदर्शिनी को याद आ रही थीं. लगभग 3 साल पहले उस ने अपने घर पर ही बच्चों के लिए एक स्कूल और झूलाघर की शुरुआत की थी. उस का घर शहर के एक छोर पर था और आगे झोंपड़पट्टी.
उस बस्ती के अधिकांश स्त्रीपुरुष सुबह होते ही कामधंधे के सिलसिले में बाहर निकल जाते थे. हर झोंपड़ी में 4-5 बच्चे होते ही थे. घर का जिम्मा सब से बडे़ बच्चे पर सौंप कर मांबाप निकल जाते थे. 8-9 बरस का बच्चा सीधे होटल में कपप्लेट धोने या गन्ने की चरखी में गिलास भरने के काम में लग जाता था.
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