‘‘अरे रामकली, कहां से आ रही है?’’ सामने से आती हुई चंपा ने जब उस का रास्ता रोक कर पूछा तब रामकली ने देखा कि यह तो वही चंपा है जो किसी जमाने में उस की पक्की सहेली थी. दोनों ने ही साथसाथ तगारी उठाई थी. सुखदुख की साथी थीं. फुरसत के पलों में घंटों घरगृहस्थी की बातें किया करती थीं.
ठेकेदार की जिस साइट पर भी वे काम करने जाती थीं, साथसाथ जाती थीं. उन की दोस्ती देख कर वहां की दूसरी मजदूर औरतें जला करती थीं, मगर एक दिन उस ने काम छोड़ दिया. तब उन की दोस्ती टूट गई. एक समय ऐसा आया जब उन का मिलना छूट गया.
रामकली को चुप देख कर चंपा फिर बोली, ‘‘अरे, तेरा ध्यान किधर है रामकली? मैं पूछ रही हूं कि तू कहां से आ रही है? आजकल तू मिलती क्यों नहीं?’’
रामकली ने सवाल का जवाब न देते हुए चंपा से सवाल पूछते हुए कहा, ‘‘पहले तू बता, क्या कर रही है?’’
‘‘मैं तो घरों में बरतन मांजने का काम कर रही हूं. और तू क्या कर रही है?’’
‘‘वही मेहनतमजदूरी.’’
‘‘धत तेरे की, आखिर पुराना धंधा छूटा नहीं.’’
‘‘कैसे छोड़ सकती हूं, अब तो ये हाथ लोहे के हो गए हैं.’’
‘‘मगर, इस वक्त तू कहां से आ रही है?’’
‘‘कहां से आऊंगी, मजदूरी कर के आ रही हूं.’’
‘‘कोई दूसरा काम क्यों नहीं पकड़ लेती?’’
‘‘कौन सा काम पकड़ूं, कोई मिले तब न.’’
‘‘मैं तुझे काम दिलवा सकती हूं.’’
‘‘कौन सा काम?’’
‘‘मेहरी का काम कर सकेगी?’’
‘‘नेकी और पूछपूछ.’’
‘‘तो चल तहसीलदार के बंगले पर. वहां उन की मेमसाहब को किसी बाई की जरूरत थी. मुझ से उस ने कहा भी था.’’
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