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चूल्हे पर रोटियां सेंकते सेंकते फौजिया सामने फर्श पर बैठे पोतेपोतियों को थाली में रोटी और रात का बचा सालन परोसती जा रही थी, साथ ही, बगल में रखी टोकरी में भी रोटियां रखती जा रही थी ताकि शौहर और बेटों के लिए समय से खेत पर खाना भेज सके. तभी उस की सास की आवाज़ सुनाई पड़ी, “अरी खस्मनुखानिये, आज मैनू दूधरोट्टी मिल्लेगी कि नै?”

सास की पुकार पर फौजिया ने जल्दी से पास रखे कटोरदान में से 2 बासी रोटियां निकाल कर एक कटोरे में तोड़ कर गुड़ में मींसीं और उस में थोड़ा पानी व गरम दूध डाल कर अपनी बगैर दांत वाली सास के खाने लायक लपसी बना कर पास बैठी बेटी को कटोरा थमा दिया, “जा, दे आ बुड्ढी नू.” कटोरा तो पकड़ लिया रज़िया ने, लेकिन जातेजाते अम्मी को ताना ज़रूर दे गई, “जब तू तज्ज़ी रोटी सेंक रही है हुण बेबे नू बस्सी रोटी किस वास्ते दें दी?”

फौजिया ने कोई जवाब न दे कर गुस्से से बेटी को घूरा और वहां से जाने का इशारा किया, तो रजिया बड़बड़ाती हुई चली गई.  फौजिया ने अपनी बड़ी बहू सलमा को आवाज़ दे कर खेत में खाना पंहुचाने को कहा और जल्दीजल्दी सरसों का साग व कच्ची प्याज फोड़ कर रोटियों के साथ टोकरी में रख कर टोकरी एक तरफ सरका दी.

रज़िया को अपनी दादी के प्रति अम्मी के दोगले व्यवहार से बहुत चिढ़ है. लेकिन उस का कोई वश नहीं चलता, इसीलिए हर रोज़ अपनी अम्मी से छिपा कर वह दादी के लिए कुछ न कुछ खाने का ताज़ा सामान ले जा कर चुपचाप उसे खिला देती है और दादी भीगी आंखों व भरे गले से अपनी पोती को पुचकारती रहती हैं. आज जब रज़िया नाश्ते का कटोरा ले कर बेबे के पास गई तो वह अपनी फटी कथरी पर बैठी अपने सामने एक पुरानी व मैली सी पोटली खोल कर उस में कुछ टटोल रही थी पर उस की आंखें अपनी पोती के इंतज़ार में दरवाज़े की तरफ ही गड़ी हुई थीं.

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