सुकुमार सेन नाम था उस का. घर हो या बाहर, वह अपनी एक नई पहचान बना चुका था. दफ्तर में घुसते ही मानो वह एक मशीन का पुरजा बन जाता हो. उस के चेहरे पर शांति रहती, पर सख्ती भी. उस का चैंबर बड़ा था. वह एसी थोड़ी देर ही चलवाता फिर बंद करवा देता. उस का मानना था कि अगर यहां अधिक ठंडक हुई तो बाहर जा कर वह बीमार पड़ जाएगा.
बरामदे में गरम हवा चलती है. सुकुमार के पीए ने बताया, ‘‘साहब ज्यादा बात नहीं करते, फाइल जाते ही निकल आती है, बुला कर कुछ पूछते नहीं.’’
‘‘तो इस में क्या नुकसान है?’’ कार्यालय में सेवारत बाबू पीयूष ने पूछा.
‘‘बात तो ठीक है, पर अपनी पुरानी आदत है कि साहब कुछ पूछें तो मैं कुछ बताऊं.’’
‘‘क्या अब घर पर जाना नहीं होता?’’
‘‘नहीं, कोई काम होता है तो साहब लौटते समय खुद कर लेते हैं या मैडम को फोन कर देते हैं. कभी बाहर का काम होता है तो हमें यहीं पर ही बता देते हैं.’’
‘‘बात तो सही है,’’ पीयूष बोले, ‘‘पर यार, यह खड़ूस भी है. अंदर जाओ तो लगता है कि एक्सरे रूम में आ गए हैं, सवाल सीधा फेंकता है, बंदूक की गोली की तरह.’’
‘‘क्यों, कुछ हो गया क्या?’’ पीए हंसते हुए बोला.
‘‘हां यार, वह शाहबाद वाली फाइल थी, मुझ से कहा था, सोमवार को पुटअप करना. मैं तो भूल गया था. बारां वाली फाइल ले कर गया. उस ने भीतर कंप्यूटर खोल रखा था, देख कर बोला, ‘आप को आज शाहबाद वाली फाइल लानी थी, उस का क्या हुआ?’
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