कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

विशाल को उठ कर जाना पड़ा. उस  के जाते ही अजीत सुधा के पास आ बैठा और बोला, ‘‘सुधा, मुझे तुम से यह उम्मीद न थी.’’

‘‘पर यह जरूरी था, अजीत. हम सौरभ, गौरव की रूखी रोटी में से क्या कटौती कर सकते हैं. क्या बूआ हमारी स्थिति नहीं जानतीं? मैं ने उन्हें पत्र लिखा था, उन्होंने उत्तर तक नहीं दिया. तुम्हें भी समझना चाहिए कि मौके पर सब कैसे बच रहे हैं. मदद को कोई नहीं आया, और न ही कोई आएगा. तुम नाराज क्यों होते हो?’’

‘‘नाराज नहीं हूं. मैं तो यह कह रहा हूं कि तुम ने कितनी सरलता से सुलझा दिया मामला. वरना हम पर नए सिरे से कर्ज चढ़ना शुरू हो गया होता.’’

‘‘नहीं, अजीत, अब ऐसा नहीं होगा  कि जो चाहे जब चाहे चला आए और पैर पसार कर पड़ा रहे.’’

‘‘अच्छा, अगर बूआ लड़ने आ गईं तो क्या करोगी?’’

‘‘जो मुझे करना चाहिए वही करूंगी. पहले प्यार से समझाने की कोशिश करूंगी, नहीं समझेंगी तो अपनी बात कहूंगी. अपने बच्चों की मां हूं, उन का भलाबुरा तो मैं ही देखूंगी. अजीत हमें छंटनी करनी होगी...अपनेपरायों की छंटनी. दूर के रिश्तेदार ही नहीं पास वालों को भी तो आजमा कर देखा. बूआ क्या दूर की रिश्तेदार होती है? या चाची या मामी? ऐसे लोगों से आगे अब मैं नहीं निभा पाऊंगी.’’

‘‘तुम ने जितनी कठिन परिस्थितियों में मेरा साथ निभाया है इस के बाद तो मैं यही कहूंगा कि तुम लाखों में एक हो, क्योंकि मेरे गार्ड बन जाने पर भी तुम ने कोई खराब प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की.’’

‘‘यह थोड़े दिन की बात है, अजीत. वहां गेट पर खड़ेखड़े ही तुम निराश न होना. सोचना क्याक्या संभव है. कहांकहां तुम्हारी योग्यता का उपयोग हो सकता है. उस के अनुसार प्रयास करना. देखना, एक दिन तुम जरूर सफल होगे और हमारी गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाएगी.’’

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD48USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD100USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...